तुम शहर की चकाचौंध को रौनक कहते हो
परिंदों से पूछना गांव के भोर की रौनक क्या होती है.
गांव की कीमत बस इतनी रह गयी अब
बसिंदे यहाँ सिर्फ़ छुट्टियां मनाने आते हैं.
गाँव के घोंसले छोड़ शहर नहीं गए
क्योंकि परिंदों को पैसों की भूख नहीं थी.
वो बूढ़ा पेड़ बस साँसे देता था
पैसे देता तो सब गांव में हीं रहते.
होली और दीवाली के शोर खो गए
इस गांव के सभी बच्चे अब बड़े हो गए.
वो धमा चौकड़ी, भागम भाग याद करते हैं
गांव के वो कच्चे रास्ते अब चुपचाप रहते हैं.
नाज़ुक बीजों से पीपल-बरगद उगा लेती है
गांव की मिट्टी भी, शहर की इमारतों से ऊंची है.
वो आते भी हैं तो मुसाफ़िर बनकर
ग़ैर हो चले हैं इस मिट्टी के कर्ज़दार.
वो चिराग़ जो अब शहर जलाने चले हैं
उनको सहारा देनेवाला दीया माटी का था.
हवाओं के इशारों पर कहीं उड़ने नहीं देती
मेरे गांव की मिट्टी मुझे औक़ात में रखती है.
ना शोर, ना होड़, शरारतें भी गुमनाम हो चली हैं
वो जो गए, गांव की सड़कें भी सुनसान हो चली हैं.
रौशनी, रईसी, उड़ान और ऊँचे मकान
शहर में सबकुछ है एक सुकूँ के अलावा.
अब बरसात के डर से छतरी लेके निकलते हैं
एक गांव की बारिश थी जिसमें भींगा करते थे हम.
गांव में आंगन से भी आसमान दिखता था
शहर के इन बन्द डब्बों में घुटन सी होती है.
No comments:
Post a Comment