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Saturday, January 18, 2020

मैं आज हताश हूँ


"मैं आज हताश हूँ!यह मत पूछिए क्यों।औरत हूँ।औरत को समझना आपके वश की बात नहीं है।टूट-टूट कर,रिस-रिस कर जी रही हूँ।औरत के दर्द को जब श्री राम नहीं समझ सके तो आप क्या समझ पायेंगे!वे एक गर्भवती महिला को अपने कुल की मर्यादा के बचाने के नाम पर जंगल में छोड़ आए थे।लोक मर्यादा-अर्यादा सब ढोंग था।उनको क्या था राजसुख भोगते रहे ।लोग गलत कहते हैं कि श्रीराम ने रघुकुल की मर्यादा रखी थी।सब ....सब झूठ है।रघुकुल की मर्यादा की रक्षा सीता ने.....एक औरत ने की थी।औरत हमेशा पुरूष के लिए वस्तु रही है।"
पता नहीं आज रुणा मुझसे ये सब क्यों कहती जा रही थी !ये सब सुनकर मैं अवाक् था।उसके सवाल का जवाब देने के लिए मेरे पास कोई माकूल शब्द नहीं था।मैं एकटक उसकी ओर देख रहा था।यह नहीं है कि वह जो कह रही थी वह मुझे पता नहीं था।पर एक स्त्री की मुँह से पहली बार ये सब सुन रहा था....पहली बार !
"बोलिए....बोलिए....बोलते क्यों नहीं आप ?साँप सूंघ गया है क्या आपको...।"
मैं तो बिल्कुल बूत बन गया था।न हिल रहा था,न डुलता था।यह समझिए कि मेरी साँस तो चल रही थी,लेकिन मैं किसी दूसरी दुनिया में खो गया था। 2016 में मेरी शादी हुई थी। मार्च 2017 में सृष्टि ने जन्म लिया था।वह पहली बार गर्भवती हुई थी।उसका यह पहला अनुभव था,परंतु मैंने महसूस किया कि इस संबंध में वह मुझसे ज्यादा जानती है।
एक दिन बारिश हो रही थी। बाहर पड़े कपड़े को वह जल्दी-जल्दी घर कर रही थी। इस क्रम में वह कुछ दूर दौड़ गयी।सृष्टि गर्भ में थी। रात में खून का रिसाव होने लगा । मैं घबरा गया। जयनगर डॉक्टर रीता झा के पास अगली सुबह ले गया।अल्ट्रा साउंड के बाद सात इंजेक्शन और कुछ दवा उन्होंने लिख दिया। दवा और इंजेक्शन लेने के बाद वह स्वस्थ हो गयी।सृष्टि का स्वस्थ रूप में जन्म हुआ।
जब औरत सही-सलामत बच्चे जन्म दे और जच्चा-बच्चा दोनों स्वस्थ हो तो हमारे यहाँ कहा जाता है -''औरत का दूसरा जन्म हुआ है।''
मैं रात भर सो नहीं पाया था। जयनगर अनुमंडल अस्पताल में कुर्सी पर बैठे हुए मैंने वह रात बीतायी थी।वह रात में नौ बजे प्रसूति कक्ष में ले जायी गयी।दस मिनट के बाद पुनः नर्स उसे अपने बेड पर वापस दे गयी। मैं बाहर कुर्सी पर बैठे हुए सब गतिविधि पर नज़र रखा था ।
नर्स- "कल सुबह तक हो जायेगी।"
मेरी सास- "क्या ?....कल सुबह तक !"
नर्स- "हाँ।"
मेरा साला घर से रोटी-भुजिया लेकर आया।मैं थोड़ा-सा खाया और बाकी कूड़ा में फेंक आया।वह नीचे पटिया बिछाकर सो गया।मैं यूँ ही कुर्सी पर थोड़ा पैर सामने की ओर फैलाकर सोने का स्वांग रातभर करता रहा।
अगली सुबह नर्स ने आकर मुझे बतायी-"लड़की हुई है।नार्मल हुई है।"
आशा- "सही है,पहली बार में कुछ भी हो सही है।"
सासु माँ- "कोई बात नहीं,सब ठीक है।"
मेरी ओर देखते हुए मेरी सासु माँ बोल रही थी। मैं खुश था। मेरे मुख पर हल्की मुस्कान थी।नर्स, एन एन एम और अन्य स्टाफ सब ने आकर मुझे घेर लिया था। कुल मिलाकर पंद्रह सौ पर बात बनी थी ।मैंने वह राशि उन्हें दे दिया था। मेरी सास मुझे इतने रुपये देने पर डाँट रही थी। दीवारों पर लिखा था-''किसी को आप पैसा न दें।''पर भारत में बिना घूस दिए काम कहाँ चलता है।
सुबह में मैंने अस्पताल के एंबुलेंस से रुणा और नवजात परी को लेकर घर आ गया था।एंबुलेंस के ड्रायवर ने भी नहीं माना और ढ़ाई सौ रुपये उसने भी माँग लिया।जबकि बिहार सरकार एंबुलेंस सेवा मुफ्त में देती है।अगर ड्रायवर को पैसा न दें तो वह नहीं जाने का बहाना बनाता है । मेरे जैसे लोग उससे इस मुद्दे पर लड़ नहीं सकते ।
वह घर आई। उसका नाम मैंने अस्पताल में ही रख दिया था-'अपराजिता' । वह छोटी सी पड़ी ! पिता बनने का अहसास लिए मैं बहुत खुश था और हूँ। परंतु समाज के लोग और हमारे इर्द-गिर्द वाले लोग बेटी होने पर हमसे तरह-तरह के प्रश्न पूछते हैं।प्रश्न पूछने का तरीका भी अलग-अलग होता है। मुबारकवाद देने में लोग हिचकिचाते हैं।
मोहनपुर वाली चाची, "की भेल बउवा ?"
"बेटी ।"
"नीक अछि ने ?"
"हँ ।"
"घरे पर भेलै ?"
"नहि ,अस्पताल मे।"
"चीर-फाड़ ?"
"नहि,नॉर्मल भेलै।"
घंघरोरिया वाली चाची तथा दो-तीन और औरत आपस में बात कर रही थी।
घंघरोरिया वाली चाची,"बड़ घमंड छेलन्हि तैं बेटी भेलन्हि।"
एक औरत,"जे बेसी अपना आप केँ बुझैत छै,ओकरा ओहिना होएत छै।"
दूसरी औरत,"जे आगि मूतै छै,ओकरा ओहिना होएत छै।"
अपनी भाभी को कोलकाता मैंने फोन किया,"हाँ हलो,बेटी हुई है।"
"चिर-फाड़ तँ नहि भेलै ?"
"नहीं।"
"मुँह-कान केहेन अछि ?"
"मेरे जैसे ।"
"रंग?"
"मेरे जैसे....मम्मी जैसे।"
"अखन कत अछि-अस्पताल में या घर पर?"
"घर पर।"
भारत में चेहरा की बनावट पर बहुत सवाल-जवाब होता है।लड़की हो तो रंग-रूप,पूरे शरीर की बनावट भी पूछा जाता है।साहित्यकारों ने तो नायिका-भेद लिखकर और हद कर दी है।औरत के साथ कदम-कदम पर मजाक किया गया है।मनुस्मृति का विशेष योगदान है।
रुणा के मन में डर बना हुआ था।वह डरती थी कि लड़की होने पर मैं नाराज न हो जाऊँ। पर भला मैं क्यों नाराज होने लगा।मेरे पास इतनी समझ तो है कि लड़की-लड़के में कोई फर्क नहीं है,बल्कि इंसानी सोच में फर्क है।
रुणा बिल्कुल स्वस्थ थी।शरीर पर तो जोर पड़ता ही है।नौ महीने गर्भ में शिशु को पालना आसान काम नहीं होता है।इस दौरान जो कष्ट औरत झेलती है और फिर जन्म होने के दौरान प्रसव पीड़ा के वक्त ,उसका ऋण संतान जीवनभर नहीं चुका सकता है।
प्रसव के बाद डॉक्टर ने जरूरी सलाह दिया था।उन्होंने दवा लिख दिया था।मैंने अस्पताल के बगल में आशा के बताए गये दवाखाना
से दवा लिया था।बाद में पता चला कि आशा ने उसी दुकान से दवा खरीदने को क्यों कहा था।भारत में ऊपरी कमाई करने का चलन- सा हो गया है। बिना मेहनत का कमीशन खोरी !गरीब लोग इसलिए बेहाल हो जाते हैं।डॉक्टर बिना पैसे का इलाज नहीं कर सकते।सब
बिजनेस है,सेवाभाव कुछ नहीं रहा ।
मैं भी डर गया था। जब वह कह रही थी -'मैं मर जाऊँगी'। प्रसव पीड़ा दुनिया में सबसे भयंकर पीड़ा होती है।वह दूसरी बार माँ बनी थी।वह एक बार इस पीड़ा से रू-ब-रू हो चुकी थी।सबसे ज्यादा जान का खतरा रहता है।बच्चे सही-सलामत हो जाए तो समझिए औरत ने दूसरा जन्म लिया है।

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