थी कमां नूर की खिंचती चली आती ।
थी उतनी सियाही पे सफ़ैदी मिली जाती ।
हर एक किरन तीर की तेज़ी थी दिखाती ।
नेज़ों से शुआयों के छने चरख़ की छाती ।
ख़ुरशीद निकलने को ही था अब कोई दम में ।
होने को था फिर हशर बपा अरबो-अज़म में ।
बेदार थे सब खालसा जी हो चुके कब के ।
न्हा धो के थे बैठे हुए ध्यान में रब्ब के ।
दीवान बड़ी शान का जलवे थे ग़ज़ब के ।
ख़ुद रखते थे तशरीफ़ गुरू सामने सब के ।
थे पास अजीत और थे जुझार प्यारे ।
गुर्याई के चढ़ते हुए दरिया के किनारे ।
गद्दी पे पिता बेटे भी मसनद के करीं थे ।
दो चांद के टुकड़ों में गुरू माह-ए-मुबीं थे ।
थे नूर से तन पैकर-ए-ख़ाकी नहीं थे ।
शाहज़ादों से शह-शाह से शहज़ादे हसीं थे ।
अम्मामो पि कलग़ी का अजब तुर्रा सज़ा था ।
पेशानी-ए-पुर-आब पि यूं केस थे कारे ।
सुम्बल का गोया खेत था दरिया के किनारे ।
अबरू तले आंखें थीं या जंगल में चिकारे ।
वुह नाक का नक्शा जु न मानी भी उतारे ।
इन कानों की ख़ूबी उसे हैरत में जकड़ ले ।
देखे उन्हें बहज़ाद तो कान अपना पकड़ ले ।
दो चांद के टुकड़े हैं येह रुख़सार नहीं हैं ।
सुर्ख़ होने पि भी नूर हैं येह नार नहीं हैं ।
अब आगे दहन मिलने के आसार नहीं हैं ।
जोगी जिसे पा ले येह वुह असरार नहीं हैं ।
होटों के मुकाबिल में निबात हो नहीं सकती ।
लब मिलते हैं शीरीनी से बात हो नहीं सकती ।
चेहरा था महे-चार-दहम रीश थी हाला ।
मूछें थीं या ख़त नूर की मिसतर पि था काला ।
कहता लब-ए-लाल्ली को था हर देखने वाला ।
कसतूरी के जंगल में खिला है गुले-लाला ।
गर्दन पि रूए-शाह की तमसील क्या लिखूं ।
था पीढ़े पि गरंथे-मुकद्दस खुला लिखूं ।
दाढ़ी थी या कि मुसहफ़े रुख़ का ग़िलाफ़ था ।
काले उछाड़ पर जु खिला साफ़ साफ़ था ।
शानों की सज का ग़ैर को भी एतराफ़ था ।
बाज़ू के बल का ग़लग़ला जा पहुंचा काफ़ था ।
कुव्वत में देव जचते न जिन थे निगाह में ।
बख़्शा था हक्क ने ज़ोर वुह बाज़ू-ए-शाह में ।
कुहनी गठी हुई थी कलाई भरी हुई ।
कुव्वत से येह भी और थी वुह भी भरी हुई ।
पंजे में पांच शेरों की कस्स थी भरी हुई ।
उंगली की पोर पोर में बिजली भरी हुई ।
सीना मिसाल आईने की पाक साफ़ था ।
सतिगुर के दुश्मनों को भी येह एतराफ़ था ।
येह पुश्ते-पाक, पुश्ते-पनाहे-जहान है ।
सिक्खों को इस का फ़ख़र है सिंहों को मान है ।
बचती इसी की साया में, बेकस की जान है ।
हिन्दोसतां की ढाल यही बेग़ुमान है ।
जिस सर पि छाई उस पि फिर आफ़त गिरी नहीं ।
है चरख़ भी गवाह येह रन में फिरी नहीं ।
खोल्हे ग्रंथ-ए-पाक को बैठे हुज़ूर थे ।
उपदेश सुन के हो चुके सब को सरूर थे ।
जितने भी सामईन वुह नज़दीक-ओ-दूर थे ।
उन सब के रुख़ पि नूर के पैदा ज़हूर थे ।
तासीर थी ज़बां में येह ताकत बयान में ।
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