आज यहां आखिरी रात है। फैसले की ये रात मान्या के दिल पर बहुत भारी है- अपनी कह और अजित की सुन सकने वाली आखिरी रात! 'आज का दिन मेरी उम्मीद का है आखिरी दिन', नहीं, 'आज की रात मेरी उम्मीद की है आखिरी रात'..कल सुबह तो इस ट्रेनिंग हॉस्टल में दूर- दूर से इकट्ठा हुए सारे पंछी अपने- अपने बसेरे उड़, बिछुड़ जाएंगे! इसीलिए तो कह रही है जिंदगी- 'तुरंत फैसला लो या उमर भर पछताओ।'
वक्त की उफनती आई लहर जब ऐन आंखों के सामने एक चमकदार, कीमती मोती डाल गई है तो उसे मान देकर उठा लेना चाहिए, वरना नियति की दूसरी लहर उसे वापस भी तो ले जा सकती है! दिल के दरवाजे पर हौले-से दस्तक देते आकर खड़े हो गए को अबकी अंदर बुला ले या हमेशा की तरह दरवाजा मजबूती से बंद किए रहे? प्यार उसकी जिंदगी में हमेशा एक आहट की तरह आता और चला जाता रहा है। उस आहट को सुन आगे आने, उसे अपना लेने या उसमें डूब जाने की ख्वाहिश कभी पूरी नहीं हो पाई।
'पर अब तो मैं विधवा हूं- दिल से खाली!' मान्या ने सोचा।
डिनर हो चुका। ट्रेनिंग हॉस्टल के विशाल दस मंजिले भवन के सामने बड़े से लॉन में रात के अंधेरे में एक कुर्सी पर अकेली बैठी थी, अब बेचैनी में उठकर टहलने लगी। हल्की रोशनी का सुंदर संयोजन और घास के अंदर फिट छोटे-छोटे माइक! आत्मा को शांति पहुंचाती कोई मीठी धुन बज रही है पर वह रोना चाहती है। चाहती है कि प्रेम-भंग के गीत बजें। सारी दुनिया जान जाए कि उसकी जिंदगी न कभी महकी, न सुगंध में सराबोर हुई।
नहीं, वह चाहती है कि कोई प्रेम गीत बजे। एज इज़ जस्ट अ नंबर। जिंदगी अभी बाकी है। बाकी है सुगंध में सराबोर, किसी में डूबकर इतराना! क्या अजित अभी आएगा, सीने से लगाएगा? जरूर अब भी कुछ है उसमें, तभी तो अजित उसे चाहता है। उसकी आंखों में उमड़ते दर्द के समंदर को पी जाना, उसे भरोसा दिलाना चाहता है कि वह अब भी जिंदा है, प्यार कर-करके लबालब भिगो दिए जाने के काबिल!
वह सीढ़ियां चढ़ तीसरी मंजिल पर अपने कमरे में चली गई। कतार में बने कमरे ट्रेनिंग के लिए आए ऑफिसरों को अलॉट कर दिए गए हैं। डेढ़ दशकों से नौकरी कर रहे शादीशुदा, व्यस्त जिंदगी जी रहे जिम्मेदार लोग हैं सब-के-सब, तो इस सावधानी की कोई जरूरत नहीं कि सुरक्षा के लिहाज से महिला अधिकारियों को दूसरे विंग में फैकल्टीज़ के बगल वाले कमरे दिए जाएं। यह सब तब होता था जब वह कुंवारी थी।
इसी कतार में पांच कमरों के अंतराल पर दो प्राणियों के दिल कल बिछुड़ जाने के खयाल से कसक में डूबे हैं। वे धड़क रहे हैं किसी बार-बार महसूसी, फिर भी अनसमझी अनभूति से!
सजे-धजे सुगंधित कमरे में, बिस्तर पर औंधे मुंह लेटी, सुबक- सुबक रोती मान्या यहां आने के बाद के दिनों को एक-एक कर खंगाल रही है।
ट्रेनिंग का पहला दिन
आसमान में चांद दिखने का आभास
ट्रेनिंग का पहला दिन था। पूछे गए चार सवालों के दनादन जवाब क्या दे दिए, सबकी नजरों में चढ़ गई। वह पीछे ही बैठा था। टी ब्रेक में आया और गपशप करने लगा।
‘तुमने तो मुझे पहचाना नहीं होगा?’ से बात शुरू हुई। मान्या पहचानती थी। फिर तो आराम से बातें शुरू हो गईं- पिछले शहर में पोस्टिंग की, दफ्तर और कॉन्फरेंसों में कभी- कभार हुई चंद मिनटों की मुलाकातों की...उन बातों की बातें, जो कच्ची उमर में संकोचवश कह नहीं पाते थे। फिर आहिस्ता से दिल की बातें!
‘बढ़ती उमर के साथ तुम ज्यादा आकर्षक लगने लगी हो। कैसी चल रही है जिंदगी?’ अजित ने पूछा तो मान्या अंदर से रो पड़ी। ‘मन के उजड़े चमन में आह का दिया जलता है’, पर प्रकट बोली
‘विधवा बनी जीती हूं। घर से विद्रोह करके चली आई थी अपने एक घर की तलाश में, पर न घर बना, न बसा’।
उसका गला रूंध गया।
‘ओह! आई ऐम सॉरी’। अजित ने कहा।
अजित सुंदर है। गठीला, सांवला बदन, तीखे नाक- नक्श, लंबा कद, मेधावी, आकर्षक व्यक्तित्व। वह मान्या का घोर प्रशंसक है, उसे सातवें आसमान पर चढ़ा देता है, तो स्वाभाविक है- मान्या को बहुत अच्छा लगता है।
मान्या ने टुकड़े- टुकड़े हो चुके अपने दिल का एक टुकड़ा प्यार का झरना बरसा रहे अजित को दे दिया।
दूसरा दिन
दूसरे दिन खिला मन में दूज का चांद
‘क्या तुम्हें पता है, मैं मन- ही- मन तुम्हें साल-दर- साल कितना चाहता रहा? ऑफिस के तुम्हारे कमरे में जाता , तुम्हें एक नजर देखता और वहीं बगल की मेज पर बैठे तुम्हारे इमीडिएट बॉस से कोई फालतू की बात करके लौट जाता था। जिस दिन तुमसे भी दो बातें हो जाती थीं, दिनभर इतराता फिरता था।’
‘क्या तुम्हें पता है कि मैं भी मन- ही- मन तुम्हें कितना चाहती और इंतजार करती रहती थी कि तुम कमरे में आओ तो सिर्फ मुझसे बातें करो। अपनी उन नजरों को बखानो जो मुझे इतना परेशान करती और गुदगुदाती रहती हैं- प्यार है कि नहीं है, के ज्वार- भाटे में झुलाती रहती हैं।’
‘हर प्यार कह देने या पा लेने को नहीं किया जाता पगली! कभी-कभी प्यार को सारी तीव्रता समेत मन में रख लेना ही असली प्यार है। जता दिया जाकर अपनाया नहीं जाएगा, तो दिलों में धुंआता, जिंदगी में दूषण फैलाता रहेगा। तुम्हारा एक ऑरा था- इंटेलिजेंट, सिंसियर, सलीकेदार इंजीनियर का। ऑफिस के सबसे पॉपुलर ऑफिसरों में थी, सांस्कृतिक कार्यक्रमों में जमकर हिस्सेदारी करती थी, इतनी अच्छी ऐक्टिंग भी करती थी... मंच पर तुम्हें देख मेरी धड़कनें रुक जाती थीं। तुम्हें सराहता, साथ की इच्छा तो करता था पर लगता था कि भागदौड़ और तमाम जिम्मेदारियों भरी अपनी जिंदगी में अगर तुम्हें ले आऊंगा, अपनाऊंगा तो बर्बाद भले कर दूं, आबाद नहीं कर पाऊंगा। तुम्हें लगातार विकसित होते रहने को जो वातावरण चाहिए, वो मैं दे नहीं पाऊंगा। इसीलिए यही ठीक है- प्यार करना पर मन में ही रखना.. और फिर जो कहा नहीं गया, वो प्यार क्या प्यार नहीं होता?’ वह मुस्कुराती आंखों के साथ कह रहा है।
‘बोल देते तो दो कुंवारे, जो तब तक किसी से कमिटेड नहीं थे, साथ- साथ घूमते- भटकते- लिखते-पढ़ते...पहाड़ पर बैठकर सूरज का उगना-डूबना देखते, गाने सुनते.. क्या पता प्रेम- पत्र भी लिखते!’, मान्या हंस रही है, अजित भी हंस रहा है।
‘मेरे पति को यही शिकायत रही कि मैंने कभी कहा ही नहीं कि मुझे उनसे प्यार है, तो वे जानते कैसे? इसीलिए वे किसी न किसी और से प्यार करते रहे- उनसे, जो दिन में कई- कई बार कहती, लिखकर जताती रहीं कि प्यार है, प्यार है, प्यार है...मैंने कभी जताया नहीं कि वे कितने अच्छे हैं तो उन्हें लगा, मैं मन में उन्हें बुरा समझती हूं।' वह आंखों में भर आए आंसुओं के बावजूद मुस्कुराकर बोली, 'अब सोचो कि शब्द ही सबकुछ हैं? क्या प्यार का बार- बार उचार ही अंदर से समृद्ध कर सकता है? खुद को पूरे- का- पूरा दे देना, भावों से, कर्मों से, बिन शब्दों के समझा देना कुछ नहीं? क्या बिन-बोला इजहार अर्थहीन है?!’
अजित यह सुनकर हंसने लगा। मान्या रोने लगी ।
उसे रोती देख वह एकदम से सीरियस हो गया।
तीसरा दिन
अतीत के काले बादलों को पछाड़कर बाहर निकल आया चांद!
‘हां, अजित, शादी तो की, पर जल्द ही विधवा हो गई। और वो भी ऐसे कि विधवा हुई तो साथ रोने तक को कोई नहीं था- दोस्त, न परिवार, न समाज! किसी को पता जो न चला कि मैं विधवा हो चुकी हूं। मेरा सबकुछ बे-आवाज टूटा और मैं आज तक अपने घर के बिखरे टुक़ड़े चुनती जीती हूं.. कि जैसे नियति ने कहा कि तुमने अपने चाहने वालों का दिल- मजबूरन ही सही- बार- बार तोड़ा है, उन्हें अपनाने से- भारी मन से, मजबूरी में सही- इनकार किया है, तो अब टूटे दिल से जीना तुम्हारी नियति होगी। तुम्हारी जिंदगी एक ऐसी जिंदगी होगी जिसमें प्यार की खोज होगी, तड़पन होगी और होगी प्यार के अहसास को पकड़ने की अनवरत कोशिश। इसी कोशिश में तुम बूढ़ी होकर मर जाओगी, पर उफनते-बरसते प्यार में कभी नहा न पाओगी। प्यार तुम्हें अंत तक छकाता रहेगा। क्य़ा तुम समझ सकते हो ऐसे जीना कितना मुश्किल है? कि आप अंदर से दुख में डूबे हों पर आपको सुख का अभिनय करते जीना पड़े, अंदर रेगिस्तान में अंध़ड़ चलता हो पर बाहर वासंती बयार दिखानी पड़े, दिमाग की नसें तनती हों पर मुस्कुराना पड़े, कि आप..’
मान्या की आंखों में आंसू देख, अजित की आंखें भी भींग गईं। वह उठा और चला गया।
मान्या को अपने आंसू दिखाना नहीं चाहता।
नि:शब्द समानुभूति भी प्यार है- मान्या ने सोचा।
पांचवां दिन
चांद अंदर चमकता है !
पता नहीं किस दोस्त की कार उठा लाया था अजित! खूब घुमाया, तेज- तेज गाने सुनाए- गाकर, तो सी.डी से भी। मसखरा बना हंसाता रहा। फिर अचानक से मान्या को छेड़ता-सा बोला
‘मैं पिघला हुआ चांद हूं- मुझे पी लो’।
‘मैं फटा हुआ दिल हूं, मुझे सी लो’, मान्या ने चुहल लौटाया।
‘मैं सुबह की ओर बढ़ती रात हूं’, अजित ने कहा तो मान्या ने जड़ दिया,
’मैं खत्म हो चुकी बात हूं’
‘नहीं, बात अभी बाकी है’, मान्या के कहे को अजित ने उलट दिया।
‘रात अभी बाकी है’ अजित की ओर मुड़कर हंसती हुई मान्या ने भी फिल्मी लाइन उचार दी।
दो जोड़ी होंठ एक-साथ मुस्कुराते, एक दिल में बदल जाते है।
टी ब्रेक, लंच ब्रेक से शुरू करके अब शामें भी साथ गुजरने लगी हैं। बीच के पंद्रह सालों को सारे अनुभव बांटकर पाट लिया गया। एक हल्केपन ने मान्या को घेर लिया- जैसे न किसी अतीत का बोझ हो, न भविष्य की चिंता! न विधवापन किसी लाश- सा कंधे पर लदा हो, जिसे उठाकर चलने की मजबूरी हो, न ही परंपरा का कोई अदृश्य परदा सिर पर डला हो।
‘मैं कोई भ्रम नहीं हूं। मैं सचमुच सामने हूं। तुम्हें प्यार करता हूं, तुम्हें अपना सकता हूं।’
अजित ने कहा, तो सीढ़ियां चढ़ती मान्या ठिठक गई, फिर मुस्कुरा दी।
अजित ने धीमे से पूछा,
‘क्या मैं तुम्हें चूम सकता हूं?’
‘नहीं’, दृढ़ता से बोल कर मान्या झटके से कमरे में घुस गई।
बिस्तर पर लेटी तो उसके होठों पर अजित के होंठ चिपके हुए थे। वह मसल रहा था, चूस रहा था, निशान बना रहा था गालों पर। अभ्यास बहुत पुराना है, पर संकोच नया। नहीं, संकोच बहुत पुराना है, अभ्यास नया.. बेशर्मी की आदत जो नहीं ठहरी! इस आलिंगन में बाहुपाश कुछ ज्यादा कसे हैं, ताकत के इस्तेमाल की तरह! इसमें वो कोमलता नहीं जिसकी वह आदी रही है, पर होंठ फिर भी थरथरा रहे हैं। शरीर में कोई लहर दौड़ती है जैसे, और बिजली होंठों से शुरू होकर पांवों के तलवों में समा जाती है। वह होठों पर पिला हुआ है- मानो अभी, इसी क्षण, उसके सारे वजूद को होठों की मार्फत पी लेगा। वह प्रतिदान नहीं दे पाती। उसके लिए चुंबन लेने- देने की इच्छा, दुलार में सने नाजुक- नाजुक होठों की छुअन है, जैसे कोई संगीत बजाता हो आत्मा में! शरीर के तारों को इस उम्मीद के साथ हौले- हौले छेड़ा जाता हो कि उनमें से राग -रागिनियां निकलेंगी।
अगले दिन उसे देख अजित स्वाभाविक तरीके से मुस्कुराया तो मान्या एकदम से शर्मा गई। फिर अचकचाकर महसूसा कि अजित ने असल में चूमा थोड़े था, वह तो इनकार सुनकर दरवाजे पर से ही चला गया था!
आठवां दिन
अंदर चांद पूर्णिमा में बदलता हुआ!
वे टहल रहे हैं। पेड़ों की छांह भरे घुमावदार, साफ-सुथरे रास्तों पर, जहां पेड़ों से झरे पीले पत्ते बिछे हैं। अतीत सूख-झरकर नीचे बिछ गया है? मान्या पूछना चाहती है। अगले सेशन का समय हो रहा है। अजित कह रहा है
‘हम अलग रास्तों पर निकल गए थे, पर नियति ने हमें फिर से मिला दिया। एक तुम- लहूलुहान दिल की विधवा; एक मैं- बिना विवाह, लंबे रिश्ते से गुजर, प्रेमिका से अलग हो चुका कुंवारा। तो वीराना झेल रहे, आधे- अधूरे जी रहे दो दिल अब मिलकर एक हो सकते हैं। हमारे दिल में फिर से फूल खिल सकते हैं.. अंदर उदास- उदास सोया, मर- सा गया है जो, वह जी जा सकता है।’
मान्या की आंखों में सपने भरने लगे। उसे अपलक देखता अजित ठिठक कर रूक गया और पूछा 'क्या मैं तुम्हें बाहों में ले सकता हूं?’
‘नहीं,’ वह फिर से दृढ़ता से बोलकर क्लास रूम की ओर मुड़ने लगी। उसकी आंखों में आंसू देख अजित ने रूमाल बढ़ाया, तो मान्या ने उससे रुमाल लेकर आंसू पोंछ लिए।
उस रात मान्या को लगा कि किसी ने उसे बाहों में कस रखा है। जोर आजमाइश करने पर भी वह निकल नहीं पाती। मर्दाने ताकत का यह इस्तेमाल बहुत लुभाता है। वह निकलने को जोर लगाती, अपेक्षा में हंसती है.. वह ले लिए जाने के खेल में हार जाना चाहती है। उसने अचानक पाया कि वह तो ट्रेनिंग हॉस्टल के अपने कमरे में, बिस्तर पर अकेली आहें भरती रो रही है। फिर उसने आंसू पोंछकर घड़ी देखी। सिर्फ साढ़े नौ बजे थे। उसने घर फोन मिलाया।
बेटे ने छेड़ा, ‘ठीक से पढ़ रही हो न ममा?’
वह हंस दी। बेटे और बेटी से बात करके कुछ क्षणों के लिए दिल हल्का हो गया।
नवां दिन
चांद पिघलकर वजूद में समाता हुआ
अजित कुछ से कुछ होता जा रहा था मन में।
वह उसका पिता था- उसके आंसुओं के प्रवाह को देखता, उसका दुख महसूसता, निदान खोजता।
वह उसका पति था- बांहों में लेकर शब्दों, स्पर्शों और आश्वस्ति भरी थपकियों से दुख पर मलहम लगाता।
वह उसका पुत्र था- गुदगुदाकर हंसाने की भोली कोशिश करता, मानो हंसते ही दुख गल जाएगा।
‘मैं तुम्हारा पति नहीं हूं’, वह फुसफुसाया,‘इसीलिए चूमने तक नहीं देती- जैसे जूठी हो जाओगी।!’
‘हां शायद।’ मान्या खोई- खोई-सी बोल रही है। ‘मैं स्त्री-पुरुष के रिश्ते को बहुत नाजुक, पवित्र समझती जीती रही हूं। भावनाओं से जुड़ा कोई रेशमी अहसास, नाजुक डोर या पारदर्शी भंगुर-सा कांच, जिससे छेड़छाड़ उसे तोड़ सकता है। एक बार टूट गया तो फिर जोड़ने की कोशिश ही बेमानी है क्योंकि टूटी किरचों को जोड़ने की कोशिश बस हाथों को लहूलुहान करेगी, टूटा रिश्ता या टूटा दिल जोड़ न सकेगी।’
अजित सहमति में मुस्कुराया है।
न पिता, न पति, न पुत्र- मान्या ने सोचा- अजित, तुम सिर्फ और सिर्फ एक पुरूष हो, जिसने मेरे अंदर सोई स्त्री को फिर से जगा दिया है। अपने जिंदा होने को भूल चुकी एक विधवा को याद दिला दिया है कि उसका भी एक दिल है- धड़कता, प्यार पाने को तड़पता, मचलता!! दिल पर पड़ी दुख की तमाम परतों को उघाड़कर रख देते वो पुरुष हो तुम, जो एक औरत के दिल की नंगी चाहतों का जश्न मना रहे हो!
दसवां दिन
अंदर बस चुकी चांदनी में एकाकार है दिल!
मान्या के दिल के अंदर बसे घर के पांव निकल आए और घर दीवारों समेत दूर चला जाकर, एकदम से खो- बिला गया कहीं! घर में पति पहले से अनुपस्थित थे, अब वहां उपस्थित बच्चों का लिहाज भी नहीं रहा।
घर की दीवारों के गल जाने और हवा हो जाने का जश्न मान्या मना रही थी। घर के हवा हो जाने से उसे बाहर की सुगंधित हवा सूंघने, उनमें सांसें लेने और दौ़ड़ लगाने की पूरी आजादी मिल गई थी। अंदर- अंदर मन के बंधन टूट गए। लगा, वही हमेशा मन को बांधे क्यों रहे, जब साथ रहते भी पति ने कभी नहीं बांधा था!
जब निकल ही आए उन दीवारों के पांव, जिन्हें घर कहती थी तो बे-आवाज गायब हो चुके घर से खुद को बाहर निकाल ले जाने का इंतजार कब तक करूं? दीवारों के फिर से वापस आने, घर बन जाने के इंतजार में क्या एक ही जगह खड़ी रहूं? कब तक एकाकी, नियति से लड़ती-जूझती विधवा बनी जीती रहूं? क्यों न कह दूं अजित से मन की बात? उसने मेरे दिल की मसली कली को जाने किस जादू से फिर से खिला दिया है। अब महकी- महकी जीती हूं मैं! शादी से पहले जिंदगी में आए हर प्यार को, अपनाने की स्थिति नहीं बनती देख, अजित की तरह ही दिल पर पत्थर ऱख मैंने भी ठुकराया था। शादी के बाद मैंने अपना सारा प्यार पति पर लुटाया और बदले में उनसे धोखा ही धोखा पाया। वे प्यार के बदले सौंपते रहे सर पर अपनी नई-नई प्रेमिकाएं! नए, अनूठे लगते हर सुगंधित फूल को सूंघा, फिर चल दिए आगे। किस्मत कि उन्हें नए- नए फूलों की कभी कमी नहीं रही। पत्नी थी तो घर की हर सुविधा- सुरक्षा थी, साथ ही बाहर नए फूलों की आसानी से आमद भी! फूल- जिनके बारे में वे जानते थे कि इनकी सुगंध स्थाई नहीं हो सकती, इतना घनीभूत भी नहीं हो सकती कि घर में बदल जाए!!
अजित, मैं तुम्हें बहुत- बहुत चाहने लगी हूं।
एक मेरे पति, जो कभी मेरे नहीं हो सके और एक तुम, इतने मेरे कि सालों तक किसी और को चाहने, उसी का हो जाने की कोशिश करके हार चुके, मुझे अपना लेने को इतने व्यग्र-उत्सुक!
मुझे प्यार करने का हक है क्योंकि मैं एक विधवा का अभिशप्त जीवन जीना नहीं चाहती।
सच्चा प्रेम लगातार प्रेम में बने रहने की एकरस अनुभूति है। उफान, इन्फैचुएशन और आकर्षण की लहर तो आती- जाती, लीलती, फिर पटक देती है। ऐसे भंगुर प्रेम की बजाय किसी शांत पानी की सतह पर आंखें मूंदे लेटे- लेटे क्यों न गुजार दें जीवन!.. और वो शांत पानी, जिसमें भरोसे और विश्वास के कमल खिलते हैं, तुम हो सकते हो।
ग्यारहवां दिन
चांदनी से पूरा जगमगा गया अंतस्!
अजित, तुमने मरे हुए को जिला दिया। होठों पर अमृत की बूंदें धर दीं- थैंक्यू।
सुबह सबों के साथ हॉस्टल से क्लास के लिए बाहर निकलते उसने कहना चाहा।
प्रेम कभी बर्बाद नहीं करता,आबाद करता है। वह विध्वंस नहीं, सृजन है।
लव इज कन्स्ट्रक्शन, नॉट डिस्ट्रक्शन।
वो कहते हैं न कि प्यार किसी के साथ से खुद को पूरा महसूसने का नाम नहीं, अपना पूरापन किसी और के साथ बांटने का नाम है।
पति प्यार के नाम पर भावनाओं की उन लहरों में समाए रहे, जिनके बिखरने पर टूटे भरोसे का कीचड़, टूटे विश्वास की सीपियां बिखरी मिलीं। वे प्यार के नाम पर जहरीले रिश्तों में उलझे मुझे लगातार तोड़ते रहे, अजित तुम भरोसे- विश्वास की जड़ जमाकर उस टूटे हुए को फिर से जोड़ोगे।
बारहवां दिन
अंदर उगे चांद को सवालों के काले बादलों ने ढक लिया
शाम है। सब बाजार में भीड़ किए खड़े हैं। इस शहर आए हैं तो पत्नी- बच्चों के लिए कुछ लेकर ही वापस जाएंगे।
“तुम कुछ लोगी?’ अजित पूछ रहा है।
मान्या वहां है ही कहां! वह तो अजित से सटी- सटी किसी दूसरी दुनिया की सैर पर है।
अजित अब बच्चों की बात पूछ रहा है।
मान्या बताकर खुश हो जा रही है।
पूरी तरह खुद पर निर्भर, नन्हीं- सी जानों को बढ़ते, विकसित होते, खिलते- हंसते देखने का सुख, सिर्फ निज के सुख में डूबा, पत्नी- बच्चों को भाड़ में झोंककर बाहर प्यार कर रहा कोई स्वार्थी पति क्या जाने? क्या जाने किसी से भरोसा और विश्वास नहीं तोड़ने का सुख! बच्चों ने उसे बचा लिया, वरना..
वह विस्तार से बता रही है- बेटे और बेटी की बातें, उनके सपने, कारस्तानियां, मां पर भरोसा.. मां से दोस्ताना रिश्ता। कैसे वे मां को जब-तब दुख से उबार हंसा देते हैं। वे झिलमिलाता भविष्य हैं, जो मान्या को बांधे रखते हैं।
अजित बहुत दिलचस्पी से सुन रहा है। अजित की दिलचस्पी उसे अपना लेने की बात पर मुहर लगाने की बजाय मान्या के मन में दुविधा जगा रही है। क्यों? वह समझ नहीं पाती! क्या वह बच्चों को किसी से बांटना नहीं चाहती? वह बच्चों और अपने बीच किसी को आने देना नहीं चाहती- इतना प्यार करने वाले अजित को भी नहीं?
मान्या की वो दुनिया जिसमें अजित पूरी तरह समाया हुआ था, अनचाहे दरकने लगी।
खोना, छोड़ देना ही कई बार असली प्यार है- क्या अजित सच कह रहा था?
उस रात बार- बार जागती रही।
आगा- पीछा सोचने को मजबूर करने, चेतावनियां देने वाला प्रेम, क्या ओछा- छोटा प्रेम होता है?
तेरहवां दिन
चले मत जाना मेरे चांद!
साथ के बस दो दिन और।
एक आज और एक कल।
सपनों को जीने- पीने के बस दो दिन और.. अड़तालीस घंटे। कितने सेकेंड?
अजित एक झिलमिल, झिलमिल जादू है!
दे दिया उसने खुद को पूरे का पूरा, साथ की कामना जता दी और करता जा रहा है मेरे जवाब का इंतजार।
हताश हाल विधवा बने जीते लगता है कि जब मैंने जी ही नहीं, तो जिंदगी के इतने साल खत्म कैसे हो गए! मानो धन था कोई, जिसे नहीं खर्चे जाने की स्थिति में, जस- का- तस बने रहना चाहिए था। बढ़ना नहीं, तो घटना भी नहीं चाहिए था, पर वह अनजाने में बिन खर्चे ही खत्म हो गया।
अजित, मुझे एक बार बाहों में लेकर चूम लो- गहरे, गहरे!
एक बार बाहों में लेकर पिघला दो।
बस एक बार, बस एक बार...पर अजित कहेगा- बस एक बार क्यों, बार- बार क्यों नहीं? सिर्फ आज क्यों, हर रोज क्यों नहीं?
चौदहवां दिन
दुविधा के जल में डूबता, गायब होता जाता है चांद!
मान्या के मन की दुविधा गहरी होती जा रही है। रिश्तों की कई डोरों से गोल- गोल, ऊपर से नीचे तक बंधी जीती रही है वह! डोरों के जाने कितने सिरे बाहर हैं, जिन्हें कई- कई हाथ पकड़े खड़े हैं- दो सिरे दोनों बच्चों के हाथों में, एक सिरा मां, कई सिरे मित्रों-रिश्तेदारों-पड़ोसियों-पहचान के लोगों के हाथों में तो एक सिरा जैसे किसी जादू से अदृश्य पति के हाथों में भी! वे सब जो उसे प्यार करते हैं, उसे रिश्तों की डोर तोड़ डालने से रोक रहे हैं। प्यार नहीं करने वाले पति भी? मैं इतनी सारी मोटी- मोटी रस्सियां कैसे काटूं?- मान्या सोचती है। क्या अजित मुझे लहूलुहान किए बिना, उन रस्सियों से अलग कर पाएगा जो अंदर- अंदर मेरे पूरे वजूद, मेरे मन को बांधे हैं? क्या मैं अपने पूरे वजूद में रचे- बसे एक घर से अलग हो, कोई नया घर रच भी पाऊंगी?
पंद्रहवां दिन
गायब होते, अमावस्या में बदलते चांद को पकड़कर रोक लो कोई!
सुबह से उलझी थी। अजित से बात करने तक से बचती रही।
अब रात हो गई।
अब कहना होगा।
कोई फैसला लेना होगा।
आज रात आखिरी बार मिलेंगे या कि अब हर रात मिलेंगे?
कल सुबह उड़ जाना है तो अजित दरवाजा खटखटाकर उसे थोड़ी देर नीचे लॉन में पड़ी कुर्सियों पर चल बैठने का निमंत्रण दे रहा है। वह वहीं तो थी- कुछ देर पहले तक!
जागी हुई है तो इनकार क्या करना!
ट्रेनिंग हॉस्टल की ये आखिरी यादगार रात, साथ- साथ जीते हुए, कर लेते हैं दिल की अनकही बात!
सबकुछ छोड़, हर बंधन तोड़ इस चांद को अपना लेने, अपना जीवन सजा लेने की चाहत की बात?!
प्रेम क्या हमेशा नियति के विरूद्ध एक हारी हुई लड़ाई है?
पा लिया, तो भी किसी अधूरेपन से जूझते, और- और मांगते रहे; नहीं पाया तो अधूरापन लिए, पूरेपन की चाह में भटकते रहे, भटकते रहे??
क्या पति का कहना सही था कि मैं उन रद्दी लोगों में से हूं, जो प्रेम कर ही नहीं सकते? प्रेम- पत्र लिख ही नहीं सकते? सचमुच??
नहीं, मैं तो प्रेम करने और अपना कर आगे बढ़ जाने की हिम्मत जुटा सकती हूं!
कुछ चमकीली चाहतें हैं जो आगे खींचती हैं।
कोई डोर है जो पीछे खींचती है।
कुछ सवाल उग रहे हैं मन में।
अजित से प्रेम सृजन के साथ विध्वंस भी ला सकता है- मान्या को सुख देकर, उसकी जिंदगी से जुड़े, उसे प्रिय कइयों को दुख दे सकता है, तब भी वह अपनाने लायक है क्या?
किसी ने उसे अपने अंदर ही थप्पड़ मार दिया। क्यों नहीं, क्यों नहीं आखिर? पति ने कभी सोचा था यह? हर बार बिना गिल्ट, पत्नी-बच्चों की भावनाओं, सुविधा-असुविधा, मान-अपमान का खयाल किए बिना चल पड़ता रहा न निज सुख की खोज में?
आखिर कब तक अपनी ही लाश उठाए जीते रहें अभिशप्त जीवन??
ये चांद कोई भ्रम तो नहीं!
अजित और मान्या कुर्सियों पर बैठ गए- आमने-सामने।
ओह! अजित उसके ठीक बगल में उसका हाथ अपने हाथों में लेकर क्यों नहीं बैठता?
कुछ पलों की चुप्पी जब सीने पर रखा पहाड़ बन जाए तो बोलना पड़ता है।
मान्या की आवाज किसी दूसरी दुनिया से जबरन खींच लाई गई, अब भी खोई- सी आवाज थी।
'कुछ कहना चाहती हूं अजित!'
अजित की मुस्कुराहट ने हामी का संकेत दिया, तो मान्या ने हिम्मत जुटाई
'दो आत्मनिर्भर लोगों के साथ में, मेरे जाने- सिर्फ और सिर्फ दिल का रिश्ता होता है, जो उन्हें बांधे रख सकता है। अगर पति का दिल कहीं और उलझा हो, जानते- बूझते पत्नी का दिल तोड़ता, उसका मान नहीं रखता हो, तो विवाह का रिश्ता मर जाता है और पत्नी पति के जीवित रहते भी अहसासों में विधवा हो जाती है- जैसे मैं हो गई हूं।'
वह एक पल रुकी कि अजित कहीं चौंका तो नहीं! पर वह चौंके बिना, सिर्फ कानों से नहीं, आंखों-अहसासों-सांसों-रोमछिद्रों तक से सुन रहा था- एकाग्र! मान्या आश्वस्त होकर आगे बोली
'ऐसे घर में रहती हूं जहां पति होते हुए भी नहीं है- मानो वह मर चुका है पत्नी के लिए..और पत्नी की नियति कि वह मरे हुए रिश्ते की लाश सर पर उठाए विधवा बनी जीती रहे! आदित्य से विवाह मेरा फैसला था तो विवाह की कठिनाइयां, उलझनें, तमाम सुख- दुख, मुझ अकेली के ही तो हुए! अब ऐसे विधवापने की बात किससे- कैसे कहती, कौन समझता? और जब कहा ही नहीं, तो साथ रोता कौन? तुम मेरे सखा, तुम वो- जो सोच में मेरा ही आईना- इसीलिए कह पाई तुमसे.. तुम समझ रहे हो न! आदित्य जाने शैतान है या देवता कि अपनी किसी भी करनी का उस पर कोई असर नहीं होता। वह मेरी भावनाओं का खून भी करता है तो बिना किसी पछतावा! उनका चेहरा हरदम मुस्कुराता रहता है। उसे मेरा कुछ नहीं छूता —दुख- दर्द, मान-अपमान, शारीरिक-मानसिक-भावनात्मक तकलीफें.. कुछ भी नहीं!! इसके उलट प्रेमिका के दुखों की आशंका तक उसकी आंखें नम कर देती है। प्रेमिका के आंसू उसे सोने नहीं देते..उसके प्यार की प्रतीक्षा मेरी पर उसका प्यार किसी और का.. मेरे हिस्से घर- गृहस्थी और उसके हिस्से प्रेमिकाओं के प्रेम- पत्र..रातों का इंतजार मेरा और उसकी रातें किसी और के खयालों को समर्पित! मैं उसके साथ रहती हूं, पर न उससे प्यार कर पाती हूं, न घृणा। झूलती रहती हूं प्यार और घृणा के बीच। ये विधवापन मेरे व्यक्तित्व में ऐसे समा गया है कि मैं..
इसीलिए जब तुम मिले और तुमने उड़ेल दिया इतना सारा प्यार मुझ पर, तो मैं कुछ से कुछ हो गई। मैं पूरी तरह तुम्हारी ही हो जाना चाहती हूं, मैं बच्चों और तुम्हारे साथ फिर से जिंदगी जीना शुरु करना चाहती हूं, पर अंदर कुछ है जो बाधा बन रहा है। पहले लगता था कि अपनाए जाने के इंतजार में खड़ा एक दिल हूं, फिर से सधवा होने के इंतजार में खड़ी विधवा, पर अब जब तुम मिल चुके तो मन में ऐसे सवालों से घिर रही हूं, जिनके जवाब मुझे मालूम नहीं।
क्या घर छोड़ दूंगी तो कल को बच्चे मुझसे ये पूछेंगे कि मैंने अपने, सिर्फ अपने सुख के लिए घर क्यों छोड़ दिया? या नहीं छोड़ूंगी तो ये कि क्यों सहती रही सबकुछ और तब भी घर छोड़ क्यों नहीं दिया??
अजित, मैं सारे बंधन तोड़कर तुम तक आना चाहती हूं, मैं तुम्हें अपना लेना चाहती हूं...'
लगातार बोल रही मान्या अचानक से चुप हो गई, तो अजित उठकर खड़ा हो गया। बेचैनी में टहलने लगा। नम आंखें लिए, बिना कुछ बोले सीढ़ियों की ओर बढ़ चला।
अजित अब सीढ़ियां चढ़ रहा है। जवाब दिए बिना लौटकर जा रहा है। मान्या की सांसे रूक गईं।
चांद भ्रम नहीं, हकीकत था!
अजित मुड़ा। वह सीढ़ियां उतरता वापस आ रहा है। वह आंसू पोंछकर ठंढी सांसें लेता मुस्कुराया है। मान्या की सांसें वापस आ रही हैं।
अजित की मुस्कान पारदर्शी है।
'तुम संकोच में हो जैसे तुमने कोई तथ्य छुपाया और अब मजबूरी में उस रहस्य का खुलासा कर रही हो..पर नहीं मान्या, मैं तो पहले दिन से संदेह में था और वह संदेह दिनों- दिन पुख्ता होता जा रहा था। बिना किसी विवाह चिन्ह, सादी साज-सज्जा तो तुम्हारी पुरानी धज है पर पिछले पंद्रह दिनों से तुम्हारा हर आचरण चीख-चीखकर कह रहा था कि तुम्हारा मन कहीं बंधा है, तुम लड़ रही हो खुद से उस बंधन से बाहर आ पाने को... अपनी सारी रुमानियत, मुझे पाने-छूने की इतनी सारी अनकही कोशिशों के बावजूद सफल नहीं हो पा रही, कोई है जो आड़ बनकर सामने आ खड़ा हो जाता है और तुम अपनी चाहतों को परदे के पीछे कर लेने को मजबूर हो जाती हो। पर सोचो कि तुम्हारा मन अगर तुम्हें अपनी एकनिष्ठता बनाए रखने को उकसाता है तो इस नैसर्गिक गुण पर शर्मिंदा क्यों होना चाहिए तुम्हें? तुम तो किसी भी पुरुष के लिए प्राइज़ कैच हो मान्या.. आश्चर्य कि तुम्हारे पति ने तुम्हें मान देने की बजाय धोखा दिया।
… और रही मेरी बात, तो मैं इस हारी हुई, परिस्थितियों के आगे समर्पण कर चुकी मान्या को नहीं अपना सकता। इस मान्या को तो मैं पहचानता तक नहीं! मैं तो उस मान्या को प्यार करता हूं, जो परिस्थितियों के आगे घुटने टेक बैठ नहीं जाती,अपनी जिंदगी पर अपना अधिकार छोड़ती नहीं। आश्चर्य कि तुम सालों से चुपचाप सहती रही! तुमने आदित्य को उसकी जगह दिखा क्यों नहीं दी? कह क्यों नहीं दिया कि वह शादी में बना रहता यह नहीं कर सकता- उसे चुनना ही होगा, शादी में पत्नी का प्यार या शादी छोड़कर बाहर कहीं प्यार..या तो तुम्हारा सही अर्थों में साथ या अलगाव! जता क्यों नहीं दिया कि बेवफाई सहते, साथ रह जाने वालों में तुम नहीं!
तुम अब भी मुझतक आ सकती हो। तुम्हारा मेरी जिंदगी में हमेशा स्वागत है, पर शादी के रिश्ते को सुलझाकर सही परिणति तक ले आने के बाद!..अगर तुम आदित्य को उसकी सही जगह दिखा देती, उसे छोड़ने का फैसला मुंह पर सुना चुकी होती, तो बाहें पसारकर बच्चों समेत तुम्हें अपना लेता!! पर एक उलझी स्थिति नहीं सुलझा पाने के कारण दुविधाग्रस्त मन से, जाने कितने उलझे तार मन-ही-मन आदित्य और अतीत से जोड़े-जोड़े तुम मुझतक आओगी तो पूरे मन से नया रिश्ता कैसे बनाओगी? और ऐसी कोशिश तुम्हें करनी ही क्यों चाहिए?
प्यार छीनकर नहीं लिया जा सकता पर न्याय लिया जा सकता है।
आज रिश्तों के फैसले की रात नहीं, आज ताकत बटोरने, फैसला करने का निर्णय ले लेने की रात है। मैं तुम्हें ताकतवर देखना चाहता हूं, जैसी कि तुम अतीत में रही हो। इस निर्णयदुर्बल, भावनात्मक रूप से कमजोर मान्या से मेरा कोई परिचय नहीं है। तुम फिर से वही मान्या बनकर मेरे सामने आओ, जो मुझे अपील करती रही है? वो मान्या कोई अन्याय नहीं सहती..वह अपने फैसले बिना दुविधा लेती है।
मान्या,अब बंद करो ये रोना- धोना..ये आत्मदया और प्रताड़ित जीवन वाली स्क्रिप्ट बदल डालो यार! एक बार मजबूत बनकर आदित्य को उसकी सही जगह दिखा दो। लिव टु योर ट्रू सेल्फ ..तुम यह कर सकती हो।
उसे खींचकर सही राह पर वापस ले आओ या फिर धक्के देकर बाहर का रास्ता दिखाओ, भाड़ में जाने दो, अपनी जिंदगी अपने तरीके से जिओ, छोड़ो इस स्यापे को..और फिर पति के प्यार के सिवा भी तुम्हारी जिंदगी में इतना कुछ तो है जो तुम्हें खुशी दे सकता है! तुम बहुत सारे गुणों से भरपूर महिला हो। आश्चर्य, कि तुम्हें कुछ नजर ही नहीं आता? सुना नहीं है तुमने -'और भी गम हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा..'
अजित ने कुछ क्षणों के मौन के बाद पास आकर मान्या का कंधा थपथपाते मुस्कुराकर कहा।
'पगली, तुम्हारी दुविधा मैं समझता हूं। जो किसी और का हो, उसे छल से छीनकर अपनाने या हड़पने की नीयत नहीं रखता। बंटे मन से पास आने वाले का स्वागत भी नहीं कर पाता..पर मैं इंतजार को तैयार हूं। अगर आदित्य ने अलग होना ही उचित समझा तो रोकना मत, बिना किसी दुविधा मेरे पास चली आना; पर अगर उसने सबकुछ छोड़-छाड़कर तुम्हारे पास लौटने, तुम्हें फिर से सही अर्थों में अपना लेने का फैसला किया तो सिर्फ इस कारण मेरे पास मत चली आना कि मैं इंतजार में हूं। उस स्थिति में तुम्हारी खुशी ही मुझे सुख में इतना सराबोर कर देगी कि मैं यह सोचूंगा तक नहीं कि तुम मेरी क्यों नहीं हो पाई!
चलो, वादा करो कि जिस काबिलियत से ऑफिस के काम करती हो, उसी काबिलियत से अपनी जिंदगी भी मैनेज कर लोगी। फिर से लिखोगी अपनी जिंदगी की कहानी और अगली बार जब हम मिलेंगे तो आंसुओं की धार की जगह अपनी हंसी के फव्वारों से मुझे नहलाओगी। अभी घर जाओ और अच्छी तरह सोचो। ट्रीट योरसेल्फ वाइज़ली, यू डिजर्व इट। ये रोने-धोने, जिंदगी को स्यापे की तरह जीने की स्क्रिप्ट अगर खुद या बच्चों के लिए नहीं बदल सकती, तो मेरे लिए बदलो यार!! मैं तुम्हें तुम्हारी सारी दुनिया, सारे दुखों- सपनों समेत अपना सकता हूं, पर तुम्हारे सुखों की खातिर तुम्हें अपनी ही दुनिया में छोड़ देने को तैयार भी हूं- देअरफॉर आई डिजर्व दिस ऑनर..' वह गहरी आंखों से मुस्कुराता उसे देख रहा है।
चांद लुभाता है!
'चलो उठो, आंसू पोंछो और मेरे पास आओ' अजित ने कहा और मान्या को उठाकर एक पेड़ की छांह में बाहों के घेरे में ले लिया।
मान्या खुले दिल से उससे लिपट गई। फिर कुछ क्षणों के बाद मुस्कुराकर बोली-
'तुम्हारी परफ्यूम मुझे बहुत पसंद है। आदित्य को पता है कि मैं सुगंध की दीवानी हूं, पर कभी परफ्यूम नहीं लगाता। अब तो खैर कभी मुझसे बात करता या मुझे छूता तक नहीं। आदित्य के साथ रहती बूढ़ी हो जाना मेरी ख्वाहिश रही पर उसने...और एक तुम मिले, जो मुझे ले लेने की बजाय कहते हो कि..' अजित भी मुस्कुरा रहा है। मान्या ने फुसफुसाकर कहा- 'क्या तुम्हें पता है कि तुम कितने खूबसूरत हो? तुम्हारा सांवला-बलिष्ठ शरीर, साफ दिल, सोच, समझदारी.. सब कॉम्प्लिमेंट देने के काबिल हैं अजित!'
अजित ने अपने होंठ उसके होठों पर रख दिए तो मान्या ने मना नहीं किया। यह चुंबन, रिश्तों के किसी घालमेल के बिना लिया-दिया जा रहा था। इसका स्वाद, इसकी थरथराहट मान्या की जिंदगी में बस जाने वाली थी। अजित से यह मुलाकात, उसका प्यार, उसकी बातें मान्या का विवाहित जीवन बदल पाएं या नहीं, भविष्य में कुछ कर गुजरने, अलग ढंग से सोचने-जीने को उसे उकसा जरूर रहे थे। जिंदगी अपने हाथों में ले लेने की चाह मन में फिर से उगने लगी थी। क्या सचमुच अजित से अगली मुलाकात तक वह मन से विधवा नहीं होगी? आदित्य को बदल नहीं भी पाए, तो खुद को बदल डाल अलग ढंग से खुशी खोजती, सुखी जिंदगी जी रही होगी??
एक- दूसरे को स्पर्शों से सान्त्वना देते वे बहुत देर तक उस पेड़ की अंधेरी छांह में एक- दूसरे से लिपटे खड़े रहे- दिल और जीवन संभालने के नुस्खे पीठ पर हाथ फेरकर एक-दूसरे को थमाते, आंखों से मुस्कुराते, चुप होठों से बोलते!!
आखिरकार अजित ने बहुत सावधानी से उसे खुद से अलग कर दिया- मानो वह इतनी नाजुक है कि ताकत का थोड़ा भी इस्तेमाल उसे तोड़ दे सकता है।
खुद से कुछ इंचों की दूरी पर खड़ा करके उसकी आंखों में झांकते अजित ने पूछा
'क्या तुम इस चुंबन की बात किसी को बताओगी?'
' हां, अगर रिश्ते सुधर गए, तो आदित्य को शायद..' वह दुविधा के गलियारों से बाहर निकल, फिर से वहीं घुस जाती बोली।
अजित हंसा और बिना कुछ बोले मुड़ गया।
चांद चला जा रहा है? नहीं, चांद तो अपने अंदर है!
लगातार सीढ़ियां चढ़ते, नजरों से गायब होते जाते उस चांद को मान्या ने देखा और एक नई कसक से घिर आई। पूर्णिमा में बदल चुके इस चांद को फिर से दूज का चांद हो जाना था, पर अचानक किसी आश्वस्ति से घिर आई। चांद तो पूरे का पूरा अंदर समा चुका था। धीमे कदमों से अपने कमरे की सीढ़ियां चढ़ती मान्या को लगा, कल सुबह हॉस्टल छोड़ते समय अजित से मिलना अब उससे हो नहीं पाएगा।
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