एक भंगी था। ‘भंगी’ यानि नाली और कूड़ा-करकट साफ करने वाला, जिसे स्वीपर या मेहतर भी कहते हैं। कस्बे से बाहर एक बस्ती में उसका घर था। रोज सुबह सूरज उगने से पहले उठता, झाड़ू और फावड़ा लेकर कस्बे की गंदगी साफ करने निकल पड़ता। महीना खत्म होने पर हर घर से 20-30 रूपये मिल जाते जिससे उसके परिवार का गुजारा हो जाता था। कस्बे में हर कोई उसे जानता था। आखिरकार खानदानी भंगी था। उसके बाप-दादा भी जिंदगी भर यही काम करते आए थे। जब से पैदा हुआ था बस नाली, कूड़ा, मल यही सब देखने को मिला था। इसलिए उसे ही अपनी तकदीर समझ कर वो भी इसी काम में लग गया था। शायद उसे यही सिखाया गया था कि हम जाति से हरिजन हैं तो हमें ताउम्र यही काम करना है, हमारे लिए इस दुनिया में इसके सिवाय कोई दूसरा काम नहीं है। खैर जो भी हो समय बीतता गया। उसकी शादी हुई। घर में बीवी आयी और आखिरकार बच्चा हुआ। बच्चा बड़ा खूबसूरत था। उसने जैसे ही बच्चे को अपने हाथों में लिया, उसकी आंखों की चमक ने भंगी को दिवाना बना दिया। उसने अपने बेटे का वहीं नामकरण कर लिया, ‘तेजस्वी’। उसने तभी ठान लिया कि जो काम मैं करता हूं वो उसे नहीं करने दूंगा। अपने बेटे की देह को इन गंदी नालियों में नहीं सड़ने दूंगा। रिश्तेदारों और बस्ती के लोगों ने उसे खूब बधाईयां दी। उसने सभी को खुशी के इस मौके पर मिठाईयां बांटी। बस्ती के लोग मिलने आते तो सबसे यही कहता कि एक न एक दिन यह बड़ा आदमी ज़रूर बनेगा। मगर कुछ लोग उसका उपहास उड़ाते और कह कर चले जाते, ‘भंगी की औलाद है तो भंगी ही बनेगा’। खैर, समय अपनी रफ्तार से आगे बढ़ता गया। तेजस्वी तुतलाते हुए बोलना सीख गया, पहले अपने घुटनों पर और फिर पैरों पर चलने लगा।
भंगी खुद कोई पांचवी क्लास तक ही पढ़ा था मगर अपने बेटे को जल्द ही बस्ती के बाहर स्थित आंगनवाड़ी में भर्ती करवा दिया। एक साल बाद तेजस्वी जब अच्छी तरह से बोलना सीख गया तो उसके पिता ने कस्बे के प्राइवेट स्कूल में भर्ती करवा दिया। स्कूल ड्रेस सिलवायी, बाज़ार से कॉपी, कलम, पट्टी, बैग, टिफिन और बॉटल, सब कुछ खरीद कर लाया। स्कूल के पहले दिन तैयार होकर तेजस्वी जब अपने पिता के सामने आया तो उसका बाप फूला नहीं समाया। भंगी ने अपने बेटे को आशीर्वाद दिया और उसे स्कूल छोड़ कर आया। बच्चा स्कूल जाने लगा, अंग्रेजी की एबीसीडी और हिंदी की वर्णमाला घर पर गुनगुनाने लगा। उसका बाप यह सब देख कर खुश होता था।
अब वो भी पैसा जुटाने के लिए दोगुनी मेहनत करने लगा। रोज सुबह जल्दी उठता और कोशिश करता कि ज्यादा से ज्यादा काम निपटाया जाए ताकि कुछ बचत हो सके और तेजस्वी की आगे की पढ़ाई पूरी हो सके। उसने कभी अपने झाड़ू और फावड़े को तेजस्वी को छुने तक नहीं दिया। वो बस यही चाहता था कि ये गंदगी की हवा से वो दूर ही रहे तो ठीक होगा। जब आस-पड़ोस के बच्चे तेजस्वी को खेलने के लिए लेने आते तो वो उन्हें डांट कर भगा देता था। बस्ती के दूसरे बच्चों की तरह अपने बेटे को धूल होते हुए नहीं देखना चाहता था। उसकी इस बात पर धीरे-धीरे बस्ती के दूसरे लोग उससे मुंह फेरने लगे थे। कोई उसे ताने मारता तो कोई औंधे मुंह बात करता। मगर उसे इसकी कोई परवाह नहीं थी, उसको पता था कि जब मेरा बेटा पढ़ लिखकर बड़ा आदमी बनेगा तो ये ही सब लोग उसके पीछे-पीछे दौड़ेंगे। वह तेजस्वी का पूरा ध्यान रखने लगा, जिस माहौल में वो जीया था वो कतई उसे नहीं देना चाहता था।
दिन बीतने लगे तेजस्वी चौथी क्लास में आया, अब धीरे-धीरे दुनिया को समझना शुरू कर दिया। स्कूल में उसके दोस्त बने, उनके साथ उठता, बैठता और खेलने लगा। स्कूल में तेजस्वी की अलग ही दुनिया थी, पूरे कस्बे का नामचीन स्कूल होने के कारण अच्छे-अच्छे घरों के लड़के-लड़कियां वहां पढ़ते थे। तेजस्वी को स्कूल का माहौल अच्छा लगता था। शुरुआत में जिस स्कूल में वो रोते-रोते जाता था, वहां अब हंसते-खेलते हुए जा रहा था। उसका बाप उसे खुश देखकर गर्व से चौड़ा हो उठता था।
एक दिन शाम के वक्त वह अपने बेटे तेजस्वी के साथ बनिए की दुकान पर सामान खरीदने गया। भंगी की उस बनिए से अच्छी जान-पहचान थी। आखिरकार हफ्ते में दो बार उसकी घर की नाली साफ करने जाता था और वार-त्यौहार वह बनिया उसे कुछ उपहार भी दे देता था। साथ ही भंगी बनिए की किराने की दुकान से ही सारा सामान खरीदता था, वो उसका नियमित ग्राहक था और उधारी का खाता भी चलता था। जैसे ही वह तेजस्वी को लेकर उसकी दुकान पर पहुंचा तो दुकान के अंदर बैठा बनिए का बेटा फट से बाहर निकल कर आ गया। बनिया और भंगी, दोनों के बेटे एक ही क्लास में पढ़ते थे और अच्छे दोस्त भी थे। यह बात बनिए को पता नहीं थी। यह देखकर बनिए का सिर चकराया और उसका पारा चढ़ गया, अपने गुस्से को थोड़ा काबू में कर बनिए ने भंगी से कहा, ‘तुम अगली बार अपने बेटे को दुकान पर साथ में मत लाना वरना तुम्हारा उधारी का खाता बंद कर दूंगा’। भंगी को यह बात सुई की तरह चुभी मगर वो कुछ नहीं बोल सकता था। उसने बस ‘जी सेठजी’ कहा और जल्दी से अपने बेटे को लेकर घर की तरफ चल दिया। रास्ते में भंगी ने तेजस्वी को इस बारे में पूछा तो उसने बताया कि वह राहुल है, मेरे साथ पढ़ता है और मेरा अच्छा दोस्त है।
अब भंगी के दिमाग में उलझन बैठ गयी कि कहीं बनिया अपने बेटे को तेजस्वी के साथ रहने से मना कर देगा तो तेजस्वी को बुरा लगेगा। मगर उसने सोचा कि इस बारे में फालतू नहीं सोचना चाहिए, बनिए का बेटा अगर तेजस्वी से बात नहीं करेगा तो क्या हुआ, तेजस्वी दूसरे लड़कों को अपना दोस्त बना लेगा। बनिया रात को घर आया, उसने अपनी पत्नी को सारी बात बताई। उसकी पत्नी तुरंत पड़ोस वाले पंडित के यहां गयी और बोलने लगी, ‘पता है! वो भंगी है ना जो सुबह नाली साफ करने आता है। उसका बेटा हमारे बेटों के साथ ही पढ़ता है, स्कूल में’। बनिए की पत्नी ने पंडित और पंडिताइन को सारी बात बतायी। उसने कहा कि आज ये स्कूल में साथ में पढ़ते हैं, कल को वो भंगी घर के अंदर आएगा, हमारे सर पर चढ़कर नाचेगा और हम सिर्फ तमाशा देखेंगे। अगर अभी अपने बच्चों को उससे दूर नहीं किया तो बदनामी होनी पक्की है। पंडिताइन ने तुरंत अपने बेटे को पास बुलाया और उससे तेजस्वी के बारे में पूछा। पंडित के बेटे ने बताया कि हां हम सब साथ ही में रहते हैं और खेलते-खाते हैं, बस क्या था फिर पंडित की दिमाग की सारी बत्तियां फ्यूज हो गई।
अगले दिन बनिया और पंडित दोनों मिलकर स्कूल में गए और प्रिंसिपल से इस बारे में बात की। दोनों ने प्रिंसिपल को खरी-खोटी सुनाते हुए कहा कि आप किस तरह के बच्चों को अपने स्कूल में भर्ती करती हैं। एक गंदी नाली साफ करने वाले भंगी का बेटा हमारे बच्चों के साथ रहता है। अगर कल को हमारे बच्चे बिगड़ गए तो उसका जिम्मेदार कौन होगा। प्रिंसिपल ने कहा कि हमारे यहां जो फीस भरता है उसे हम दाखिला देते हैं, हम इसमें कुछ नहीं कर सकते हैं। बनिया और पंडित दोनों मायूस घर को आ गए। मगर दोनों को इस समस्या का समाधान निकालना था।
दोनों ने अपने बेटों को तेजस्वी से बात करने और उसके साथ रहने से सख्त मना कर दिया। अगले कुछ दिनों तक तेजस्वी स्कूल तो जाता मगर उसे वहां पहले जैसा माहौल नहीं मिलता, उसके दोस्तों ने उससे दूरी बना ली। हंसमुख तेजस्वी अब मायूस रहने लगा। भंगी को जब ये पता चला तो उसने तेजस्वी को समझाया, बेटा चिंता मत कर कुछ दोस्त बिछड़ेंगे तो नए दोस्त बनेंगे, बस तू पढ़ाई में ध्यान लगा। मगर अब क्लास के दूसरे बच्चे भी उससे दूरी बनाने लगे थे।
उधर बनिया और पंडित दोनों एक दिन फिर मिले, उन्होंने भंगी से छुटकारा पाने के लिए कोई स्थायी तरीका निकालने का तरीका सोचा। बनिए के दिमाग में एक तरकीब सूझी। वो पंडित को लेकर ठाकुर के पास गया। पंडित की ठाकुर से अच्छी जान-पहचान थी। ठाकुर के घर में कुछ भी शुभ कार्य होता था तो उसे पंडित ही पूरा करता था। पंडित ने ठाकुर को सारी बात बताई और कहा कि ठाकुर साहब आप तो उस स्कूल के ट्रस्टी हैं, अगर आप प्रिंसिपल को उस भंगी के लड़के को स्कूल से निकालने के लिए कहेंगे तो वो मान जाएगी और वैसे भी इन भंगियों की औकात नहीं है इतने अच्छे स्कूल में अपने बच्चों को पढ़ाने की। आखिर सरकारी स्कूल बना तो है उनकी बस्ती के बाहर, उसमें क्यों नहीं जाते? पंडित ने ठाकुर को पूरी तरह से अपनी बातों में फंसा लिया। ठाकुर ने तुरंत प्रिंसिपल को फोन लगाया और तेजस्वी को स्कूल से बाहर निकालने के लिए कहा। प्रिंसिपल अब कुछ नहीं कर सकती थी, उसे ठाकुर की बात माननी ही थी। पंडित और बनिया दोनों बहुत ही खुश हुए और राहत की सांस ली।
अगले दिन हमेशा की तरह तेजस्वी अपने बाप के साथ स्कूल गया। मगर उसे जब पता चला कि तेजस्वी का स्कूल से नाम हटवा दिया है तो उसके पैरों तले जमीन खिसक गयी। तेजस्वी और उसके बाप का चेहरा लटक गया। दोनों अपने मायूस चेहरे के साथ घर लौटे। दोनों बाप-बेटों को इस तरह घर लौटते हुए बस्ती वाले भी अचंभे में पड़ गए। भंगी ने अपना मुंह नहीं उठाया और चुपचाप अपने घर में चला गया। मौहल्ले वालों को भी जब इस बारे में पता चला तो भंगी पर खूब हंसे। उसका खूब मजाक उड़ाया, ‘हाहाहाहाहा! बेटे को अफसर बनाने चला था साला, भूल गया कि भंगी हैं हम’। चलो बढ़िया है, आखिरकार उसे समझ आ ही गई। अगले दो दिन तक वो काम पर नहीं गया और उसके घर से कोई बाहर नहीं निकला। तीसरे दिन अलसुबह उसके घर का दरवाजा खुला, भंगी और उसका बेटा तेजस्वी दोनों फिर कहीं चले। मगर आज तेजस्वी के हाथ में टिफिन और बोतल नहीं थे और स्कूल ड्रेस की जगह पुरानी निकर और टी-शर्ट पहन रखी थी। भंगी के हाथ में झाड़ू और फावड़ा था। सर नीचे झुकाते हुए वो तेजस्वी को लेकर अपने काम पर चल दिया। शायद तेजस्वी भी अपनी तकदीर को थोड़ा बहुत जान चुका था। मगर उस दिन के बाद भंगी ना तो कभी उस बनिए की दुकान पर सामान खरीदने गया और ना ही उस पंडित के घर नाली साफ करने।
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