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Thursday, June 27, 2019

पुराने महल का जिन्न

वालिद साहब अपनी जवानी में बहुत दिलेर आदमी थे। बहुत इच्छा थी कि फौज में भर्ती हो जाए पर दादा जी ने अनुमति न दी। वालिद साहब की दादा जी से मुंह खोल बात करने की हिम्मत न थी तो जिरह क्या करते। इधर दादी ने भी उनका इस मामले में कोई साथ न दिया। बेचारे मन मारकर रह गए।
परन्तु कुछ समय बाद ही उनके इस हिम्मती मिज़ाज ने  एक नया रूख ले लिया। गोस्ट हंटर बनने की प्रबल इच्छा होने लगी। इसे वे अपना पेशा तो न बना पाये पर लड़कपन की आवारागर्दी का एक अच्छा खासा हिस्सा इस शौक को समर्पित हो गया। वालिद साहब के मन में तीव्र इच्छा रहने लगी कि किसी तरह किसी भूत प्रेत से मुठभेड़ हो जाए। यदि कहीं कोई आत्मा मिल जाए तो जीवन सफल हो जाए। भूत किस प्रकार किसी मनुष्य को अपने वश में ले लेते हैं और फिर वह मनुष्य कैसी अजीब अजीब हरकतें करता है यहाँ तक कि मर भी जाता है-यह सब जानने के लिए आतुर रहने लगे।  इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए रंग बिरंगी तिलिस्मी किताबें और ओइजा बोर्ड इत्यादि जमा कर लिया। दादी के हाथ यह सब वस्तुएं पड़ीं तो दादा जी से अच्छी हजामत बनवाई।
दादा जी ने  कहा "बहुत गर्म खून है तो कुछ काम-काज करो। यह सब बर्बादी नहीं। हम तुमसे ज़्यादा बहादर हैं। एक-दो शैतानों को तो यूँ ही पटक दें लेकिन कहीं नहीं जाते न यह सब तदबीरें  जमा करते हैं। " इसके अलावा भी दादाजी वालिद साहब को अपनी बहादुरी के किस्से गिनाते रहते कि किस तरह फलां-फलां रोज़ उन्होंने चुड़ैल की चोटी पकड़ ली और किस तरह जिन्न के जूते जमा दिये।
                    पर  वालिद साहब भी बड़े उद्दंड थे। इस सबसे  बेपरवाह रहे। दादा जी के सामने तो सिर न उठाते पर उनके हटते ही अपने मंसूबों में मसरूफ हो जाते। कहीं कोई मित्र बता देता कि फ़लां स्थान भूतिया है तो वहीं की ओर छानबीन करने निकल जाते। रातों को घर से मित्र के यहाँ नाइट स्टडी का बहाना कर भुतहा खण्डहरों में इसी आशा से पड़े रहते कि कहीं तो कोई भूत प्रेत मिले पर हमेशा असफल ही रहते। यह लड़कपन की ना समझी थी या जवानी का जोश कि उन्हें कभी डर नहीं लगा यह वे भी कभी समझ न पाए। पर अंत में यही कहा करते थे कि इंसान को आत्माओं से हमेशा दूर ही रहना चाहिए।
खैर! शहर से बाहर कुछ दूरी पर नवाब का एक पुराना महल खाली पड़ा था और खण्डहर हो चुका था। पूरे शहर में कुख्यात था कि वहाँ जिन्नातों का बसेरा है, जो रात के अंधेरे में वहां जाता है बच नहीं पाता। वालिद साहब भी असफलता का मुंह देख-देख कर थक चुके थे, अतः सोचा कि अब उसी महल का रुख़ करा जाए। मौके़ की ताक में रहने लगे। एक दिन वह मौक़ा उन्हें मिल ही गया। रात गिरने आई थी पर दादाजी का घर पर पता न था तो दादी को किसी मित्र के घर जाने का बहाना कर निकल पड़े।
रात का समय था। क्षितिज पर पूर्णिमा का चाँद उग रहा था। उसमें चमक कम और पीलापन अधिक था। वातावरण भुतहा सा हो रहा था। वालिद साहब शहर से निकल कर महल की तरफ जाने वाली पतली सी सड़क पर साइकिल पर सवार होकर जा रहे थे। ऐसा लगता था मानो सड़क के दोनों तरफ के पेड़ झुक कर वालिद साहब को तक रहे हों। हवा के हल्के झोंके गालों को जब-तब आकर सहला जाते थे। साइकिल भी  चर्रखचूं की आवाज़ के साथ हवा से बातें कर रही थी। अंततः गंतव्य आ गया। वालिद साहब साइकिल खड़ी कर महल के भीतर चले गए। महल का अचछी तरह मुआयना फ़रमाया गया। तहखानों में खोजबीन हुई। चबूतरों पर टहला गया। पुकारा भी गया। अंत में जब कुछ असामान्य न हुआ तो वे निराशा भरे मन से बाहर की अध-ढही चहारदीवारी पर आकर बैठ गए । फिर मन की निराशा दूर करने के लिए चहारदीवारी पर ही शरीर को संतुलित कर उछल-कूद करने लगे। महल से कुछ दूरी पर एक गाँव भी था। रात गिरे गांव के लोगों की शहर की ओर आवाजाही इस महल के  रास्ते में पड़ने के कारण बंद हो जाया करती थी परन्तु आज वालिद साहब को चाँदनी की फीकी रोशनी में एक व्यक्ति साइकिल पर आता दिखा। उन्हें इस तरह मटरगश्ती करता देख वह साइकिल सवार धड़ाम गिर पड़ा और साइकिल छोड़ गाँव की ओर सरपट भाग गया। वालिद साहब पुकारना चाहते थे पर यह सोच चुप रहे कि कहीं डर से वह व्यक्ति प्राण ही न त्याग दे।
इसके बाद वालिद साहब कुछ देर और उसी मरी हुई चाँदनी में हवा खाते रहे फिर उदास से घर लौट आये। उस रात शायद दादा जी घर न आए। सुबह वालिद साहब ने दादा जी को घर में बात करते सुना, "कल रात मैं गाँव से पुराने महल के रास्ते से आ रहा था। चहारदीवारी पर जिन्न नाच रहा था।  मुझे देख सवारी की दरकार करने लगा।  मैं भी मज़बूत दिल का हूँ कोई ऐसा-वैसा नहीं।  कड़ककर एक झिड़की लगाई पर उसने झपटकर मुझे  गिरा दिया और साइकिल हवा में उछाल अदृश्य कर दी।  इसलिए रात मजबूरन गांव में ही क़ारी साहब के घर बितानी पडी। " वालिद साहब यह सब सुन बीती रात का माजरा समझ गये तभी दादा जी वालिद साहब को मुख़ातिब कर बोले," बेटा हमारे जैसा कलेजा न होगा तुम्हारा। कल मेरी जगह होते तो गोस्ट हंटरी का सारा भूत उतर जाता।" वालिद साहब सिर नीचा करे खडे़ थे और मन में मुस्कुरा रहे थे।

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