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Friday, December 15, 2017

Dharmik Kavitawan ( Part 2) Allah Yar Khan Jogi

मास्सूम हो, मज़लूम हो, दुनिया से भले हो !
लख़त-ए-दिल-ए-गोबिन्द हो नाज़ों से पले हो !
दुनिया हुई अंधेर, जब आंखों से टले हो !
घर बार लुटा, बाप कटा, तुम भी चले हो !"
बच्चे इसी हालत में अभी सोए पड़े थे ।
था दीदा-ए-तर सतिगुरू, बालीं पि खड़े थे ।


इक बार सूए-फ़लक मुंह करके वुह बोले :-
"होनी है जो कुछ आशिके-सादिक पि वुह हो ले ।
बरछी, है इजाज़त तो सीने में गड़ो ले ।
सर काट के तन चाहे तो नेज़े में परो ले ।
है शौक शहादत का हमें सब से ज़्यादा ।
सौ सर भी हों कुरबां तो नहीं रब से ज़्यादा ।


"मैंने ही बरस चौदह का बनबास था झेला ।
मैं वुह हूं जसोधा की जो आग़ोश में खेला ।
मारा था कंस मैंने था अरजुन मेरा चेला ।
कैरों से लड़ा मैं महाभारत में अकेला ।
था बुद्ध भी बाद में शंकर भी बना हूं ।
नानक के भी चोले में मैं बाबर को मिला हूं ।


"अकबर भी प्यादा मिरे दरबार में आया ।
बरकत ने मिरी फ़तह था आसाम कराया ।
मैंने बुत-ओ-बुतखाना ख़ुदाई को भुलाया ।
भगवान का घर मैंने ही मस्जिद था बनाया ।
बालू की तपी रेत मिरे तन पि पड़ी थी ।
मैं वुह हूं उबलने पि भी उफ़्फ़ तक नहीं की थी ।

"हिम्मत का मिरी आप मियां मीर है शाहिद ।
अज़मत का मिरी शाह जहांगीर है शाहिद ।
सर जिस से कटा दिल्ली में शमशीर है शाहिद ।
तो सब से ज़्यादा फ़लक-ए-पीर है शाहिद ।
जब ज़ुल्म से ज़ालिम ने जहां पीस दिया था ।
हम ने ही धर्म के लिए फिर सीस दिया था ।


"जब जब भी ज़रूरत हुई बन्दों को हम आए ।
ज़ालिम का कीया ख़ात्मा मज़लूम बचाए ।
चिड़्यों से अगर चाहा तो फिर बाज़ तुड़ाए ।
देखा जिसे हकदार उसे तख़्त दिलाए ।
काम आए फ़कीरों के तो शाहों के भी आए ।
दुश्मन के भी आए, हवा-ख़ाहों के भी आए ।


"लख लुट है हमेशा से ही सरकार हमारी ।
खाली नहीं जाता है जो आता है भिखारी ।
दुनिया में हैं हम, बाग़ में जूं बादे-बहारी ।
प्यारी हमें करतार की मख़लूक है सारी ।
सिक्ख जान से प्यारे हमें, बच्चों से सिवा हैं ।
तो हिन्दू-ओ-मुस्लिम पि भी दर फ़ैज़ के वा हैं ।
(


"मर्दाने को हम ने ही रिफ़ाकत में था रक्खा ।
कौलां को भी हम ने हिफ़ाज़त में था रक्खा ।
जिस ने भी कदम अपनी जमाअत में था रक्खा ।
महफ़ूज़ उसे हम ने हर आफ़त में था रक्खा ।
अब भी वुही आदत वुही नियत है हमारी ।
यकसां हरम-ओ-दैर से शफ़कत है हमारी ।


"मिर्ज़े कई सैदे से भी कुर्बान हुए हैं ।
मामूं से तसद्दुक भी कई ख़ान हुए हैं ।
चन्दू से गंगू से भी शैतान हुए हैं ।
बाज़ीद से भी बाज़्ज़ बेईमान हुए हैं ।
हिन्दू हैं सब अच्छे न मुस्लमान हैं अच्छे ।
दिल नेक हैं जिन के, वुही इन्सान हैं अच्छे ।"


तारों से था आकाश चिराग़ों भरी थाली ।
थी रुख़ पि बड़े बुत्त के पड़ी नूर की जाली ।
अब जल चुकी थी चरख़ के मन्दर में दीवाली ।
थी पूज चुकी ज़ुहरा-जबीं पूजने वाली ।
फिर शरक की जानिब से सफ़ैदी निकल आई ।
ज़ुल्मात में इक नूर की नदी उबल आई ।


इस ज़ोर से सैलाब हुआ नूर का जारी ।
कफ़ की तरह बहने लगी अंजुम की क्यारी ।
तारे ने सहर के अभी हिम्मत न थी हारी ।
तूफ़ान हुआ माह की कश्ती पि भी तारी ।
इस सैल से सयारे सभी औज पि टूटे ।
जिस तरह हबाब आ के सरे-मौज पि टूटे ।

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