उस रात भी उसे बेचैनी खाए जा रही थी। वो अकेला दुनिया से लड़ने का माद्दा रखता था पर खुद से लड़ना उसके बस से बाहर था।
दरवाज़े पर हलचल हुई, वो टस से मस न हुआ। उसे याद आया जब वो कोयल के साथ पहली बार इस खोली में आया था। पूरी चाल में सबसे सुंदर बीवी थी उसकी। सब जलते थे उससे, सामने तारीफें करते थे। वो हर वक़्त यही सोचता रहता था कि कही कोयल पर कोई बुरी नज़र न रखे। 'मिल' में भी उसका काम मे मन न लगता, हर वक़्त घर याद आता रहता था।
पर कोयल से निपटना इतना आसान कहाँ था। एक दिन मंगू चिल्लाता हुआ आया "योगी भाऊ, तुम्हारी औरत ने असलम का खोपड़ी खोल डाला"
योगी संन्न राह गया।
"क्या भाऊ, सोच क्या रेला है चल, चल अबी वरना पुलिस तुम्हारी औरत को ले जाएंगा।"
योगी पहुंचा तो सारी चॉल को कोयल के हक़ में बोलते पाया।
"अरे योगी भाऊ, कसा औरत है तुम्हारी, बोले तो दुर्गा। ये हरामी असलम इसके बलाउज पे उंगलियां फेर रेला था साला, तुम्हारी औरत ने क्या फटका दिया इसको।"पानी भरने के नाम पर रोज़ का छिछोरापन कोई नया नहीं था।
"योगी भाऊ किस्मत वाला बीड़ू है क्या। ऐसा जबर औरत, वाह!" फिर किसी ने दाद दी। योगी ने मन भर के असलम को और कूटा। पुलिस कचहरी की ज़रूरत ही न पड़ी।
योगी उस दिन से ही अपना खुद का फ्लैट लेने के बंदोबस्त में लग गया। शादी को दो साल हुए, ईंट-ईंट के पैसे बचाता योगी, घर आता था तो ये सोचकर कि कल कितने कमा पायेगा।
एक रात कोयल योगी के इतने करीब लेटी कि योगी सोता न राह सका। सांसे टकराने लगीं। उसने आंखें खोलीं और मुस्कुराया "क्या हुआ मेरी कुकू"
कोयल हंसी "तुमचा रोमांस कौन सिखाया रे? ऐसे करेगा तो कैसे बनेगी मैं?"
"क्या बनेगी?"
"तेरे बच्चों की माँ"
योगी हँसा। "स्साली तेरे को माँ बनने की पड़ी है, इदर घर का सपना कबीच पूरा होएंगा यहिच नई मालूम।"
"अरे मेरी जान! जहाँ मैं है, उधर ही घर समझ न, एक बच्चा कर ले।" आखिरी फ़िकरा मज़ाक से ज्यादा फरियाद मालूम पड़ती थी।
योगी अपने घर के लिए दृढ़ निश्चय किए था। उसने माथा चूमा और करवट बदल कर सोने की कोशिश करने लगा।
कोयल ने योगी के शरीर के कई हिस्सों पर हाथ लगाया, पर कहीं कोई 'हरकत' न हुई।
"अरे एक बच्चा कर ले कुतरेया, मेरे को बांझ तो न कहे कोई।"
योगी ने मन ही मन कहा "कोयल सब्र"
उसकी तंद्रा टूटी। दरवाज़ा खुलने की फिर आवाज़ आई। शायद कोयल वापस आ गयी थी। रात का डेढ़ बजे रहा था। उसे दरवाज़े पर दो साये दिखे। उसके कानों में कुछ रोज़ पहले की आवाज़ गूंजी, 'मेरे मरद सा कोई मरद नहीं है रघु, आह...' कोयल की आवाज़ में सिसकियां थीं। वो उस रात देर से आया था। नालासोपारा में एक पक्का फ्लैट बुक करने की खुशी में वो साथियों के साथ दारू पी बैठा। देर होने पर न आने का फरमान वो कई बार ज़ाहिर कर चुका था। उस रोज उसे कहीं ठिया नहीं मिला तो घर ही लौट आया। "आह..." दरवाज़े की झिरी से कोयल की सिसकियां उसके सीने में सलाखों सी उतरने लगी । वो बोली "...मेरा मरद, भोत बढ़िया बन्दा है, पर बिचारा बच्चा नहीं कर सकता, मुझे एक बच्चा दे दे रघु" उसकी चॉल के मालिक का इकलौता लड़का रघु हांफता हुआ बोला "हहह, पर एक बात तो बता, तेरे मरद जब कुछ करता नहीं तो तू कैसे मेरे बच्चे को उसके नाम थोपेंगी?"
"वो पी के आता है कबी-कबी, अबकी आएगा तो मैं सुबह बोलेगीं की तू मेरे ऊपर सोया...आहह, काट मत कुतरिया।"
रघु उस रात से हर रात पी कर आने लगा।
दरवाज़ा बन्द हुआ और कोयल उसके पास आकर लेट गयी। सुबह वो हर बात से अनजान बनने के लिए खुद को तैयार करने लगा।
#समाप्त
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Tuesday, September 24, 2019

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