जहां तक मैं उसे जानता था, मेरी नजर में वो एक निहायत ही उच्च दर्जे का आलसी था| जब मैं उस सड़क पर से गुजरता, तब वो हमेसा अपने खोलनुमा झोपड़ी में फटे पुराने चिथड़ों में लिपटा हुआ नजर आता था| कपड़ों के नाम पर जर्जर हो चुकी कमीज़ और पेंट थी ,जिसके फटे हिस्सों को धागे से न जाने कितनी बार बड़े-बड़े टांकों द्वारा सिला गया था, की कपड़ा कम चारों तरफ रंगीन धागों की कलाकारी ही नजर आती| वही मैली कुचैली काली पड़ चुकी पेंट और वही कमीज़ ...जिन्हें मैं सालों से देखता आ रहा था | सड़क के किनारे फूटपाथ पर बोरों से बनी खोलनुमा झोपड़ी में, चाहे गर्मी हो या सर्दी उस पुराने फटे हुए काले रंग के कम्बल में लिपटकर बैठा रहता| उस कम्बल को शायद कोई भला आदमी दे गया होगा| उसकी नज़रें हमेशा झोपड़ी के बाहर एकटक गड़ी रहती उस सामने वाले नीम के पेड़ पर ....कई घंटों तक वो इसी मुंद्रा में बैठा रहता, थकता तक नहीं था| हमेशा वहां से गुजरते वक्त मुझे उस पर तरस आ जाता था, इसलिए कभी कभार कुछ पैसे उसके उस बड़े कटोरे में डाल जाता | कई बार मैं सोचता था की ये अपनी जगह से हिलता तक नहीं, भीख मांगता नहीं...फिर खाता क्या होगा, लेकिन उसकी हालत कुछ ऐसी थी की कोई राहगीर चलते चलते एक दो रुपये या फल या रोटी का टुकड़ा उसके कटोरे में डाल जाता ,उसी के सहारे वो अपनी जिंदगी काटता था| और हां ,कभी कभार वो अपनी खोलनुमा झोपड़ी के पास ही पड़े कचरा पात्र में केले के छिलके ढूंढता नजर आ जाता था , लेकिन उस सड़क से दूर वो शायद ही या कभी कभार नजर आता था| जहाँ तक मैं उसे जानता था , जमापूंजी के नाम पर उसके पास केवल अपने फटे पुराने कपडे (शायद एक जोड़ी ,क्योंकि दुसरे कपड़ों में मैंने उसे कभी नहीं देखा) ,वो फटा हुअ मैला पड़ चुका कम्बल और वो खोल नुमा झोपड़ी थी ,इसके अलावा लम्बी सफ़ेद पड़ चुकी बढ़ी हुई उसकी दाढ़ी...| हाथों पर जमा हुया मैल बता रहा था की वो सालों से नहाया नहीं हैं | शायद ही कोई लम्हा होगा जब वो कुछ बोला होगा | हमेसा चुपचाप, अपनी धुन में खोया हुआ न जाने क्या सोचता रहता था वो .............
अभी गर्मीयों का मौसम था | मई की चिलचिलाती धुप में वो कोलतार की सड़क खूब तपती थी| दोपहर को तो मानो उस सड़क पर खड़ा रहना खुद को आग की भट्टी में झोंक देने जैसा था| चिलचिलाती धुप उसकी झोपडी के ऊपर डाले फटे हुए बोरे के आर पार होती रहती थी, लेकिन फिर भी वो हमेसा अपनी झोपडी में लेटा हुआ नजर आ जाता था उस धुप में भी..| शायद ईश्वर को भी उससे थोड़ी सहानुभूति थी ,इसलिए ढलती दोपहरी झोपडी के सामने वाले नीम के पेड़ की छाया उसकी झोपड़ी को ढक लेती थी| मुझे वो भिखारी काफी अलग किस्म का लगता था, मानों उसके अतीत में कोई गहरा राज छुपा हो |
मैंने उससे केवल एक बार बात की थी ,लेकिन बदले में वो कुछ नहीं बोला था| उस दिन डाकघर दफ्तर में मेरी छुटी थी इसलिए मैं घर पर ही था | अपने एक मित्र से मिलने के लिए जरूरी काम से मैं दोपहर को ही निकल पड़ा| उस सड़क पर से गुजरते वक्त मेरी नजर हमेसा की तरह अनायास ही उसकी झोपड़ी की ओर चली गयी| झोपडी के उपर ढका कपड़ा फट चुका था और एक बड़े से छेद से सुरज की तपिश सीधे उसके सर पर पड़ रही थी, लेकिन वो बस एक ही स्थिति में बैठा बैठा एकटक गंभीर मुंद्रा में बिना पलक झपकाये बाहर दीवार की ओर घुर रहा था .....उसकी लाल हो चुकी उनींदी आंखें देखकर ऐसा लग रहा था, की वो शायद ही बीती रात को सोया होगा |
मुझे उसकी हालत देखकर न जाने क्यों उस पर तरस आ गया था | हां, इसे आप मानवीय संवेदना कह सकते हैं ,और आखिरकार तपती गर्मी में तो कैसा भी दिल उसकी हालत देखकर पिघल सकता था | मैं उसी वक्त वापस अपने घर की और मुड़ गया| घर पर मैंने एक बड़ा सा कम्बल निकाला ,जिसे हम शायद एकाध साल से उपयोग कर रहे थे और वो अब पुराना भी हो गया था| अपनी बगल में वो कम्बल दबाकर मैं वापिस उस सड़क की ओर चला आया| उसकी खोलनुमा झोपड़ी के पास जाकर मैंने उस कम्बल को उसकी झोपड़ी के ऊपर डाल दिया| दयावश मैं कुछ बचा हुआ खाना भी लाया था | मैंने खाना उसके सामने रख दिया|
“बाबा कुछ ध्यान रखा करो खुद का....इतनी चिलचिलाती गर्मी में कैसे रह लेते हो, और अपनी झोपड़ी की मरमत्त भी नहीं करते| कुछ खा भी लिया करो....” मैंने उसे समझाना चाहा, लेकिन उसने मेरी तरफ देखा तक नहीं.. वो बस उसी स्थिति में बाहर ताकता हुआ बैठा रहा| मुझ गुस्सा आया और थोडा अजीब भी लगा, लेकिन दुसरे ही पल मैंने उससे कहा –“ बाबा..ये खाना खा लेना|” ऐसा कहकर मैं चल दिया| मुझे लगा की शायद उसे बातचीत करना पसंद नहीं और वो अकेला रहना ही पसंद करता हैं| थोड़ी दूर तक चलने के पश्चात जब मैंने मुड़कर देखा तो वो मुझे ही ताक रहा था |
.................................
बरसात का मौसम आ गया था | दो दिन पहले की ही तरह आज भी हलकी बूंदाबांदी हुई थी | आज सुबह सुबह ही मैं अपने दफ्तर के लिए निकल पड़ा| उस दिन पहली बार मैंने उस भिखारी को कुछ कहते सुना| उसको देखकर हर कोई सोचेगा की वो शायद पागल हो गया हैं| वो अपनी झोपडी के बाहर बीच रोड़ पर जमा पानी में नाचता हुआ एक बेजान मुस्कराहट के साथ गा रहा था ( हालांकि मैं उसे गाना नहीं चिलाना कहूंगा )|
“दिनों को मैं नहीं गिनता, तारीखें जेहन में बसी हैं...........
खिल उठी हैं हंसी जो चेहरे से चल बसी थी....,,,,,”
वो पागल की तरह गाए जा रहा था| मुझे क्या वहां से गुजरने वाले हर आदमी को वो बड़ा अजीब लग रहा था| मैंने सोचा वो पागल हो गया हैं, लेकिन उसकी आवाज में एक गंभीर स्वर था| वो गाता जा रहा था-“ दिनों को मैं नहीं गिनता............” न जाने क्यों मेरे चेहरे पर भी उसको देखकर मुस्कराहट खिल गयी| मैं अपने दफ्तर की ओर निकल गया|
उस दिन दफ्तर में कुछ खास काम नहीं था | आज शहर में हल्की बूंदाबांदी हो रही थी| सर्द हवाओं का दौर चल पड़ा था| उस दिन मुझे वो भिखारी वहां मेरे दफ्तर में दिखाई दिया| उसके हाथ में एक लिफाफा था| मैं उसको अपने दफ्तर देखकर विस्मित था | वो लिफाफा लिए हुए मेरे पास आया...उसने वो लिफाफा मेरी तरफ बढ़ा दिया| लिफाफे में शायद पत्र था या कुछ और ..लेकिन लिफाफे के ऊपर शहर का एक पता था (जिसे मैं बताना नहीं चाहूंगा )| मुझे लगा की वो भिखारी शायद पागल हो गया हैं | इसका जान पहचान वाला कौन हो सकता हैं, वो भी उस महंगी कॉलोनी में ....| पत्र मेरे हाथ में थमाकर पांच रूपये का एक मुड़ा-तुड़ा नोट उसने मेरी टेबल पर रख दिया | मानवीय भावनावश (जैसा की हर कोई साधारण आदमी करता ) मैंने उसको पांच रूपये वापिस पकड़ाये और बोला-“ इसकी कोई जरुरत नहीं ......!! ” लेकिन उसने वो नोट वापस मेरी बेंच पर रख दिया और बिना कुछ कहे चलता बना | मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था | मैं एक नजर उस पत्र की ओर डालता और एक नजर उस भिखारी की ओर.....
कर्तव्यवश मैंने टिकट लगाकर उस लेटर को पोस्ट कर दिया, और वो पांच रूपये का नोट अपने पास ही रख लिया| लेकिन करीब दो दिन बाद ही वो पत्र वापस आ गया | दरअसल दिए गये पत्ते पर उस नाम का कोई शख्स ही नहीं रहता था, जिसके नाम पत्र प्रेषित किया गया था| अब तो मुझे पक्का यकीन हो गया था की वो बुढा भिखारी अवश्य ही पागल हो गया हैं| मैंने वो पत्र बैग में डाला और घर चल पड़ा | शाम को घर पर आने के बाद मेरे दिमाग में पुरे वक्त वो पत्र और भिखारी घूमते रहे| मेरी उत्सुकता बढती जा रही थी| अभी दिन बुझने में थोड़ी देर थी | मैंने वो पत्र निकाला और उस पर लिखे पत्ते पर निकल पड़ा|
वो पता शहर के सुदूर कोने की एक कॉलोनी का था| जहाँ तक मैं जानता था, वो एक रईस कॉलोनी का पता था ,जहाँ पर औसत से ऊपर आमदनी वाला व्यक्ति ही रहने का सामर्थ्य रख सकता था| मैंने एक तांगेवाले को लिया और उस पते पर निकल पड़ा| काफी देर बाद मैं उस कॉलोनी में था| वो एक दोमंजिला मकान था | बाहर कुछ बच्चे खेल रहे थे | मैंने वहां पर जाकर एक बच्चे को बुलाकर उस मकान के मालिक के बारे में पूछा| पूछताछ के बाद पता चला की भिखारी ने जिसको पत्र लिखा था , वो कई महीने पहले ही वो मकान छोड़कर दूसरी जगह चला गया हैं | अब वहां दूसरी फैमिली रहती हैं| मैंने उनसे नया पता जानना चाहा, लेकिन उनमें से किसी को उनका नया पता नहीं मालूम था | हां, किसी ने बताया की पहले यहाँ एक आदमी अपनी पत्नी और दो बच्चों के साथ रहता था, और एक बैंक में मैनेजर था | कॉलोनी के एक आदमी ने उसके बारे में एक अजीब बात भी बताई की हर महीने उनके यहां पत्र आता था..लेकिन वो पत्र को बिना पढ़े ही फाड़ कर फेंक देते थे ,हालांकि बाद में पत्र साल में एकाध बार ही आता था | उस आदमी की यह बात मुझे भी समझ नहीं आई| मैं निराश होकर देर शाम को घर पर वापिस आ गया|
शाम तक आसमान में काले बादल घिर आये थे | शायद भारी बारिश और तूफ़ान आने वाला था| तेज हवायें चल रही थी और रह रह कर बिजली की कड़क दिल दहला रही थी| मैं अपने कमरे में बैठा विचलित होकर इधर उधर टहल रहा था | ठंडी तेज हवा खिडकियों को बंद और खोल रही थी| मुझे न जाने क्यों बैचेनी सी हो रही थी| मैं अभी तक उस पत्र के बारे में ही सोच रहा था| न जाने कुछ जानना की उत्सुकता मुझे वो लिफाफा खोलने पर मजबूर कर रही थी| रात के दो बज गये थे| तूफ़ान आ गया था| बाहर मुसलाधार बारिश चल रही थी| ठंडी हवा रह रहकर शरीर को कंपकंपा रही थी| सांस जमा देने वाली हवा चल रही थी| मैंने खिडकियों को बंद कर दिया | आखिरकार मैं अपने मन की बात दबाए नहीं रख सका |टेबल की दराज में से मैंने वो लिफाफा निकाला | हालांकि मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था, किसी का व्यक्तिगत पत्र नहीं पढना चाहिए था| फिर भी जानने की उत्सुकता और बैचैनी मुझ पर हावी थी| मैंने वो लिफाफा फाड़ा | अन्दर लगभग चार पेज लम्बी एक चिट्ठी थी जिसे बड़े सुन्दर अक्षरों में “प्रिय बेटे” संबोधन के साथ शुरु किया गया था| मैंने वो चिट्ठी पढना शुरु किया| चिट्ठी पढ़ते पढ़ते मेरे हाथ कांपने लगे, मुझे खुद नहीं पता की ना जाने कब मेरी आंखो से आंसु बह चले थे| एक एक शब्द बड़ी भारी संवेदना के साथ लिखा गया था जो दिल पर गहरी चोट करने के लिए काफी था| चिट्ठी पढने में मुझे कुछ ही समय लगा...मैं एक ही सांस में वो चिट्ठी पढ़ गया|
बतौर इस कहानी का लेखक और उससे पहले एक इंसान होने के नाते में यह नहीं बताऊंगा की उस चिट्ठी में क्या लिखा था....उसमें जो कुछ लिखा था उसका अंदाजा पाठक खुद लगाये| लेकिन उसमें लिखा गया एक एक शब्द एक कमजोर क्या कठोर दिल को भी पिघलाने के लिए काफी था| पुरी रात न जाने कितनी बार मैंने उस चिट्ठी को पढ़ा होगा और ना जाने कितनी बार मेरी आंखो से आंसू बहे होंगे...न जाने क्यों मुझे उस भिखारी के साथ मार्मिक सहानुभूति विकसित हो चली थी| | मैंने वो चिट्ठी वापस दराज में रखी | न जाने क्यों रात बीत नहीं रही थी| बाहर मूसलाधार बरसात रुकने का नाम नहीं ले रही थी| बिजली की कड़क कभी तेज होती तो कभी रुक जाती... मैं खिड़की खोलकर बाहर झांकने लगा| हवा का तेज ठंडा झोंका मेरे बदन को हिला गया...
सुबह होने में अभी वक्त था| बरसात अब धीमी हो चली थी| हलकी बूंदाबांदी हो रही थी |मौसम ठंडा हो चला था| ठंडी हवायें अभी भी चल रही थी | पुरी रात एक बर्फीले तूफ़ान की तरह थी | सुबह के छह बजते ही मैं उस सड़क की ओर चल पड़ा| मेरे कदम तेजी से उस ओर बढ़ रहे थे| | कुछ ही देर में मैं भिखारी की उस खोलनुमा झोपड़ी के सामने पहुंच गया | रात की आंधी की वजह से झोपडी का छपर और ऊपर डाला गया कपड़ा उड़ गया था| झोपडी पुरी तरह नंगी थी| अंदर ढेर सारा पानी भरा था| दीवार के सहारे भीगे हुए दलदली लिथडो में लिपटकर लेटा वो भिखारी अब भी एकटक सामने की दीवार की ओर बिना पलक झपकाए निर्जीव नज़रों से देख रहा था|
मैंने दो तीन बार उसे पुकारा, लेकिन उसने कोई जवाब नहीं दिया| उसके शरीर का खून जम चुका था| ठंडी हवा फिर से तेज हो गयी| आसमान से फिर से हल्की बूंदाबांदी होने लगी.... न जाने क्यों मेरी आँखों से भी पानी बरसने लगा | लेकिन वो बुढा भिखारी अब भी बिना पलक झपकाए निर्जीव नज़रों से एकटक सामने की दीवार को घूरे जा रहा था....
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Saturday, June 8, 2019

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