कसक”
जबसे आई हो तुम मेरी आँखों के सामने,
मेरी जिंदगी के हर पन्नों में शामिल होती जा रही हो।
बेइरादा ही सही मेरे हर पल को महका रही हो,
अब तो मुझे खुद को टटोलना पड़ता है,
रुक जा ज़रा सा,,,
‘दिल’ को बार-बार टोकना पड़ता है।
मैं सोचता था ‘दिल’ मेरा निर्जीव है,
यह मरा हुआ है पर,
यह तुम्हें देख तुमसे बोलना चाहता है,
मैं जानता हूँ नहीं हो तुम मेरे फिर भी ये तुम्हारा होना चाहता है।
क्यों आ गई तुम सर्दी की धूप बनके,
क्यों आ गई तुम मेरे मन में छपी तस्वीर की रूप बनके,
मैं तो जीतता आया था हमेशा,
लेकिन अब मुझे तुमसे हारना पड़ता है।
बुरा न लग जाए कभी तुम्हें मेरी चाहतों को जानकर इसलिए,
मन में मुझे ‘कील’ सा मारना पड़ता है।
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